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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
भगवान ने उनके इस पूजन को अंगीकृत किया और प्रतिपूजन में, बदले में उन्हें देख लिया। हरिणियों का यह पूजन, कर्म से नहीं, ज्ञान से था। देखना ज्ञान है। यही तो ऐश्वर्य है कि छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े अवस्थानुसार प्राप्त साधनों से सभी पूजा कर सकें। भगवान के माधुर्य की भी यही स्थिति है। उनके माधुर्य पर देवांगना मुग्ध हो गयीं। जब देवर्षि, महर्षि, वीतराग, मुनीन्द-योगीन्द्र सब आपके लोकोत्तर लावण्य पर लट्टू हो गये, ज्ञान-ध्यान सब उड़ गया, तब सरस, सहृदय गोपीश्वरी आदि की तो बात ही क्या? आपके माधुर्य में इतना वैलक्षण्य है कि और तो मुग्ध हों सो हों ही, पर आप स्वयं भी उसे निहारकर मन्त्रमुग्ध हो गये-
इसमें “विस्मापनं स्वस्य च” कहा है। इसका अभिप्राय यही है कि वह भगवद्बिम्ब स्वयं भगवान को भी आश्चर्य उत्पन्न करने वाला था। लोक में सौन्दर्य-सम्पादन की सामग्री अलंकार हैं, गहने-कपड़े हैं। इनसे अंगों की शोभा बढ़ती है। परन्तु श्रीभगवद्विग्रह तो- ‘परम्पदम्भूषणभूषणांगम्’ है। प्रभु का मंगलमय स्वरूप, उसका एक-एक अंग भूषणों को भी भूषित करने वाला है, भूषण का भी भूषण है- (भूषणभूतानि अंगानि यस्य तत्) मोरमुकुट, बाँकी लकुट, कारी कामरी, गुंजामाला, वनमाला अथवा कौस्तुभमणि आदि श्रीअंग में धृत होकर अपनी शोभा पाते हैं। कहा है -
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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