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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
सूर्य से जैसे दिन, आपके रूप से वैसे ही संसार में सौभग सान्दर्य है। आपके दर्शन के लिये गायें भी, पशु भी, लालायित रहते हैं-
वे आपके मुख से निकले वेणुगीत पीयूष का अपने कर्णरूप दोनों पानपात्रों को सावधानी से उठाकर पान करती हैं। वे अपने बाहुओं से आपका सुस्पर्श सौख्य लेने में असमर्थ हैं, क्योंकि उनके बाहु इस योग्य नहीं। अतः सजल नेत्ररन्ध्रों से आपकी मधुर मूर्ति को हृदय में पधारकर (हृदि स्पृशन्त्यः) उसका वे निर्विघ्न आलिंगन करती हैं और दूध पी रहे उनके बछड़े आपको देखकर वेणुनाद सुनकर चकित रह जाते हैं, स्तनों से बहते और मुख में गये दूध को पीना भूल जाते हैं, अत: वह बाहर यों ही झरने लगता है। हरिणियों की भी यही दशा है -
वे एक तो पहले ही मूढमति हैं, फिर नन्द-यशोदानन्दन श्यामसुन्दर को विचित्र वेशधारी देखकर और उनके विचित्र वेणुनाद को सुनकर अपने पतियों के साथ और भी मूढमति हो जाती हैं, सुधबुध भूल जाती हैं। इसी विभोर दशा में वे प्रणयावलोकन से अपनी समस्त सम्पत्ति से उनकी पूजा करती हैं, वे धन्य हैं। ‘हाँ, तो सखियों! इसमें जो ये रोमावली आदि हैं, यह सब उन्हीं श्रीश्याम के दर्शन और स्पर्श का फल है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भाग., स्कं. 10, अ. 21, श्लोक 13)
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