भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
शक्ति का स्वीकार किये बिना उपादानोपादेयभाव-नियम की उपपत्ति नहीं हो सकती, अतः उसे भी शक्ति में प्रमाण मानना ही चाहिये। वहाँ स्वभावभेद से ही उपपत्ति करके जो पहले अन्यथा उपपत्ति की गयी थी, उसका अभिप्राय कया है? क्या शक्तिवादी को भी अन्ततोगत्वा जब स्वभाव की शरण लेनी ही पड़ती है, तब अच्छा है कि पहले से ही स्वभाव मान लिया जाय, यह, अथवा स्वभावातिरिक्त शक्ति में प्रमाण का न होना। यदि प्रथम पक्ष तो वैसा मानने से सर्वत्र स्वभाववाद का पाद-प्रसार होने से सामान्य, समवाय एवं विशेष आदि का भी पराकरण प्रसक्त हो जायगा। अनवस्था भय सत्ता से जैसे सत्तान्तर माने बिना ही स्वभाव-विशेषवश सद्व्यवहार हेतुत्व मान लिया जाता है, वैसे ही अन्यत्र द्रव्यादि में भी स्वभाव विशेष से सद्व्यवहार उत्पन्न हो जाने से सत्तासामान्य का अपलाप हो जायगा। इसी तरह- यहाँ अनवस्था भय से जैसे समवायान्तर माने बिना ही समवाय की घट के प्रति विशेषणता मान ली जाती है, वैसे ही ‘‘शुक्लः पटः, चलति चैलांचलम्’’ यहाँ भी गुण-कर्म में स्वभाव-भेद से ही विशेषण-विशेष्य भाव होकर समवाय का अपलाप हो जायगा। इसी प्रकार जैसे अन्त्यविशेषों में स्वभाववशात परस्पर व्यावृत्ति मानी जाती है, क्योंकि विशेषों में विशेषान्तर मानने से उनकी भी, अनुगतरूपवत्ता से रूपादि की तरह, एक तो अन्त्यविशेषत्व की हानि होगी और दूसरे, अनवस्थाप्रसक्त होगी। अगत्या किन्हीं विशेषों को निर्विशेष मानने पर उन्हीं को अन्त्यविशेष मानना पड़ता है, वैसे ही नित्य द्रव्यों को भी स्वभाववशात व्यावृत्ति बुद्धि जनकत्व होने से अन्त्यविशेष का अपलाप हो जायगा। इसी तरह कालादि का भी अपलाप-प्रसक्त होगा। अतः स्वभावाश्रयण से काम नहीं चल सकता। यदि स्वभावातिरिक्त शक्ति में कहीं भी प्रमाण नहीं है, यह कहा जाय तो यह भी ठीक नहीं है। यदि कहा जाय कि जहाँ प्रमाण है, वहाँ-वहाँ वस्त्वन्तराधीन ही प्रमाण-व्यवहार हुआ करता है और जहाँ वह नहीं है, वहाँ उसके स्वभाव-भेद से ही व्यवहार होता है, ऐसी व्यवस्था है, तो यहाँ भी प्रमाण होने से ही स्वरूप से अतिरिक्त शक्ति का अंगीकार कर लेना चाहिये, ऐसी स्थिति में स्वभाववाद का अवलम्बन अनावश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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