विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
हे तुलसि! आप स्वयं मंगलमयी हो, अपने आराधक को, भक्त को भी मांगल्य प्रदान करती हो। जो भक्त आपको श्रीकृष्ण भगवान् के श्रीकण्ठ में, श्रीचरण में समर्पित करते हैं, उन्हें आप उनसे मिला देती हो, आप कल्याणी हो। हमें भी बतलाओ, श्रीश्यामसुन्दर किस तरह निकल गये हैं? हे सखि! आपको श्रीगोविन्द के चरण और आचरण, लीलादि भी अति प्रिय हैं। हम सबको भी वे श्रीगोकुलेन्द्र गोविन्द चरण तो अवश्य प्रिय हैं’ परन्तु यह उनका आचरण प्रिय नहीं है, जो हमें वियोगिनी बनाकर छिप गये हैं। सखि! आपको उनके वियोग का कभी अवसन ही नहीं आया। कारण कि आप सौभाग्यवश अनुकूल आचरण में ही रहीं। जब आप वृन्दा थीं तब भी अनुकूल आचरण में रहीं। हम तो आर्यधर्मादि को त्यागकर उन्हें चाहती हैं तब वे मिलते नहीं। पर आप नहीं चाहती थीं तब भी जालन्धर वेश से उन्होंने आपको ग्रहण किया। अन्त में वर भी दिया-‘कभी विप्रयोग न होगा।’ भोग लगने के समय और सब हट जायँ, भोग राग में कमी हो जाये, पर आप नहीं हट सकतीं, आपकी कमी नहीं हो सकती। आपके बिना भोग ही नहीं लग सकता। देखो सखि तुलसि! आपको मकरन्दलोभी भ्रमरों से संकुलित होने पर भी भ्रमरों की गुनगुनाहट और लक्ष्मी की नाराजगी की परवाह न करके भी उन्होंने धारण किया है। एतावता यह भी बतलाया कि- “आप बहुवल्लभा हैं-(बहवो वल्लभा यस्याः) तब भी वे आपको धारण किये हैं। पहले ‘वृन्दा’ रूप में जालन्धर तुम्हारा वल्लभ था। अब ये मधुलम्पट मिलिन्दवृन्द मकरन्द पान के लिये आपको घेरे हैं। फिर भी सखि, आपको श्रीश्यामसुन्दर धारण किये हैं। हम तो हे तुलसि! एक वल्लभा हैं, लोकधर्म, कुलधर्म, सब कुछ त्यागकर, अपना सर्वस्व उन पर न्योछावर करके उन्हें, केवल उन्हें ही स्वीकार कर चुकी हैं, पर फिर भी वे हमें दर्शन तक नहीं देते। इससे तो उनका सब आचरण आपके अनुकूल पाया जाता है। अतः आप अच्युत की परमप्रेयसी हो। अत: वे आपके सदा अच्युत (अविश्लिष्ट) रहते हैं। अत: जाना जाता है, आपका बहुत शुद्ध और गाढ़ प्रेम है। अथवा ‘गोविन्दचरणप्रिये’ श्रीगोविन्द का चरण ही प्रिय है जिन्हें ऐसी आप हो। हे तुलसि! आपने प्रथम से ही दैन्यभाव का आश्रय लिया, श्रीश्यामसुन्दर के श्रीचरण को अंगीकृत किया- दास्यभाव से, दासी होकर, मानिनी या कान्ता बनकर नहीं। आपमें किसी भाव का गर्व नहीं, औद्वत्य नहीं, अत: “तेऽतिप्रियोऽच्युतः।” कभी उनसे आपका विश्लेष नहीं। हममें तो सखि तुलसि! ‘मान’ है और यह बड़ा दोष है। यह इसी का फल है जो हमें आज असह्य विप्रयोग हो रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज