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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीभगवान ने स्वयम् श्रीमुख से इन वृक्षों की स्तुति की है। ये साधारण वृक्ष नहीं हैं, ये योगीन्द्र-मुनीन्द्र वन्दित वृक्ष हैं। ये सुमन और फल का उपहार लेकर अपने शाखारूप शिखाग्र भाग से भगवद्वन्दन करते हैं। ये इसलिये प्रणाम करते हैं कि ‘तम मिटे’। परन्तु यह बात जँचती नहीं; क्योंकि जब श्रीउद्धव, श्रीब्रह्मा जैसे श्रीवृन्दावन के ‘तरु, गुल्म’ होना चाहते हैं, तब इनमें ‘तम’ कैसा? इससे तो इनकी महिमा सिद्ध होती है। यद्यपि यह ठीक है, परन्तु इसमें वृक्षों का भाव दूसरा है। वृक्ष सोचते हैं- ‘ये पक्षी, ग्वालबाल, गैया, जहाँ-जहाँ श्रीश्याम कन्हैया पधारते हैं, वहाँ-वहाँ पहुँच जाते हैं, परन्तु हम तो ऐसा नहीं कर सकते। हमें तो श्रीश्यामसुन्दर स्वयम् ही पधारकर आलिंगन, स्पर्श दें, तब हमारी इच्छा पूर्ण हो। अतः इस ‘तम’ को दूर करने के लिये यह इनका यत्न है, क्योंकि ये बड़े हैं, दिव्य हैं, उदार हैं। निःस्वार्थ भाव से परोपकार करना महानुभावों का स्वभाव होता है। परन्तु यह इनकी दिव्यता सर्वसाधारण को नहीं ज्ञात है, जैसे भगवान कृष्ण का ईश्वरत्व सब नहीं जान सके; वैसे ही इनका वास्तविक स्वरूप अप्रकट है। इनका दिव्य स्वरूप, श्रीयमुना का मणि-हीरकरचित तट और वहाँ दुग्ध धारा प्रवाह यदि साधारण जनवेद्य हो जाय तो तुरन्त पहरा बैठ जाय, परन्तु किन्ही महानुभावों को यह सब सदा साक्षात रहता है। ऐसे ही एक महानुभाव ने एक अभिमानी सम्राट को यहाँ का एक पत्थर का टुकड़ा बतलाया जो बहुत मूल्यवान हीरक खण्ड था; सम्राट का समस्त साम्राज्य भी उस टुकड़े के बराबर नहीं निकला। हाँ, तो इस दृष्टि से “तमोपहत्यै” प्रकाश करने के लिये, लोगों को बोध देने के लिये ‘तरु जन्म’ है। जिस समय अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक अप्रकट-गुप्त रहकर लीला करते हैं, उनके परिकर भी छिपकर लीला में सम्मिलित होते हैं। व्रजांगना कहती हैं, हे तरुओं! उसी स्वरूप में आप वृक्ष हो, आपने हमारे प्राण प्यारे को इधर कहीं जाते देखा हो तो कहो। हम आपका बड़ा अनुग्रह मानेंगी। व्रजांगनाओं की बहुत मिन्नत-आरजू करने पर भी जब आशा पूर्ण न हुई तब वही निन्दा में बदल गयी- ‘सखि! रूप और गुण की बात तो दूर रही, पहले इसका नाम ही देखो कैसा डरावना है-‘ नाग-सर्प? श्रीश्यामसुन्दर ने भी प्रेमहालाहल से हम सबको वियोग में विमोहित किया और ये भी उसी प्रकार कष्ट दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त यह पुन्नाग है, पुरुष जाति बड़ी कठोर होती है, वह हम अबलाओं के कष्ट नहीं जानती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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