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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
सज्जनो, यह तुम्हारा कहना ठीक है, पर हम तो यही विश्वास करती रहीं, ये श्रीनन्दसूनु हैं-आनन्ददायी हैं, हमें क्या ज्ञान था कि इनसे प्रेम करके ऐसे सन्ताप उठाना पड़ेगा। यों व्रजांगना अपने ही प्रश्नोत्तर करती पूछती फिरती हैं। जब तक उन्हें उत्तर की आशा रहती है विविध भाँति पूछती हैं। निराश होने पर उनमें दोषानुसन्धान करती हैं-सखि, इसने मौन व्रत लिया है। नहीं, यह गूँगा है। यह भी बात नहीं, इसे तो प्रियतम के दरसपरस से-गाढ़ प्रेम से स्तब्धता हो गयी है। हाँ हाँ, यह कह सकते कि बीमारी में आ गया है, हमारी सुनता ही नहीं। मेरी समझ में तो सखि, ये उनकी विभूति हैं, इन्हें श्रीश्याम का अधिक सहयोग प्राप्त हुआ है। ये उनके साथी होने से उनके पक्षपाती हैं, कभी पता न देंगे। यह सब कुछ नहीं, असल बात यह है कि ये सब महत्त्वाभिमानी हैं। सोचते हैं- ‘इन गँवारी ग्वालिनों से क्या बोलें।’ यही समझकर ये हमारी उपेक्षा कर रहे हैं। अत: इनमें कोई गुण नहीं। चलो अब आगे चलें, उस ‘कुरवक’ से पूछें- देखो सखि! इसमें सुमनस (पुष्प) भी लगे हैं। यह अच्छे मन वाला है, इससे पूछना चाहिये। इसके स्वरूप से भी प्रतीत होता है, इसे श्रीश्यामसुन्दर के अवश्य दर्शन हुए हैं। तभी यह प्रसन्न हो रहा है। इसके अम्लान पुष्प विकसित हो रहे हैं। यह अपने सौरभ से मन को, दिग्दिगन्त को आमोदित कर रहा है। इसका अन्तःकरण पवित्र है। दूसरे, फूलों का फूलना, यह तो प्यारे के दर्शन के बिना सम्भव नहीं-हृदय का फूल उसके बिना खिलता नहीं। यह इसका आमोद भी तभी है जब यह स्वयम् दर्शन का आनन्द ले चुका है। सखि, इसका सहवास करेंगी, इससे प्रश्न करेंगी तो हमारा भी मन खिलेगा, हमें भी मंगलमय अंग की प्राप्ति होगी। अहो, इसका तो नाम भी बड़ा अच्छा है- “कौ पृथिव्यां यशसोरवो यस्य सः एव ‘कुरवकः’ अखण्डभूमण्डल में इसका यश व्याप्त है। यह श्रीश्याम के ही समान है। इसके वे सखा हैं, अपने समान नामरूप वाले हैं। अतः इससे पूछो। इससे पता चलेगा। कुरवक! तुम बड़े अच्छे हो, तुमने कहीं श्यामसुन्दर को देखा हो तो बताओ, वे हमारा मन चुराके भाग आये हैं। कुरवक की ओर से शंका करके कहती हैं-सखि, यह तो कह रहा है-व्रजांगनाओं, तुम्हारे ही दोष से, गर्व से श्याम चले गये हैं, अब तुम क्यों रोती हो? तो कहती हैं- श्यामसुन्दर तो ‘दर्पहरस्मितः’ हैं। माना, हमारे ही दोष से वे गये, पर वे अन्तर्हित क्यों हो गये? क्योंकि उनके तो स्मितमात्र से ही हमारा दर्प दूर हो सकता था। अमृत से लाभ होने की जगह विष का प्रयोग कौन करेगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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