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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
इस प्रकार की कृष्ण की तामसी मूर्ति का इन दो पद्यों में वर्णन है-
“कर्णोत्पलालकविटंक”[1]-“श्यामं हिरण्यपरिधिं नवमाल्यबर्ह.”[2] माला के सौगन्ध्य से ‘सत्त्व’ गुण कहा गया। ‘सत्त्व’ का अभिप्राय है- प्रकाश, ‘रज’ का अभिप्राय है हलचल-क्रिया और ‘तम’ का अभिप्राय है रुकावट-आवरण। यही प्रकृति में भी है। जहाँ ‘लीला’ है वहाँ भी एक अवरोध, हलचल और प्रकाश हैं। पहले श्रीश्यामसुन्दर-मुरलीमनोहर का प्रकाश, फिर उनके दर्शन के लिये चंचलता, इसके बाद उससे आसक्ति-गाढ़-मूढ़ता सिद्ध ही है। यह जो प्रेम है, यह तामस है। प्रेम का स्वरूप, आसक्ति-उत्कट उत्कण्ठा है। व्रजांगना कहती हैं- हे वृक्षों, श्रीश्यामसुन्दर के अनुराग से आवरण हो गया-हमारी बुद्धि पर परदा पड़ गया, हास से चंचलता-खलबली हो उठी और अवलोकन से सात्त्विक भाव। उसी समय ये चोर शेखर हमारे चित्त को चुरा ले गये। अब तुम समझे, यों चुरा ले गये। अब ये कहाँ गये? तुमने देखा हो तो जल्दी बतलाओ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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