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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
एक दूसरी सखी कहती है, ‘नहीं सखि, देख, ये भी श्रीश्यामसुन्दर के वियोग ताप से स्तब्ध हैं, वे भी दुःखी हैं, विहृल हैं। हमारी इनकी एक-सी ही स्थिति है।’ यह वृन्दावन के पशु, पक्षी, वृक्षों में जो हराभरापन आनन्द-एकरसता की स्थिति है, यह श्रीश्यामसुन्दर के दर्शन से ही है। तब श्रीश्याम के वियोग में भी वे हरे-भरे ही क्यों दीखते हैं? तो यह बात दूसरी है, व्रजलीला में यह सदा एकरस रहते हैं, क्योंकि श्रीभगवान व्रजलीला में श्रीवृन्दावन को छोड़कर एक पाद भी कहीं नहीं जाते- “वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति।” व्यापी वैकुण्ठ में ही पुरुषोत्तम भगवान का प्रादुर्भाव होगा। जैसे- नेत्र, जो बाहर से दीख रहे हैं ये नेत्र नहीं है अपितु ये नेत्र गोलक हैं। नेत्र, अतीन्द्रिय इन्द्रिय है, वह इस गोलक के भीतर है। श्रीचैतन्य महाप्रभु श्रीजगन्नाथ पुरी में रहते थे, तो क्या उन्हें वहाँ श्रीश्यामसुन्दर का प्राकट्य नहीं था? था, पर वह अंतर में था। “यो वेद निहितं गुहायां सह ब्रह्मणा विपश्चितेति।” दो ब्रह्म की कल्पना है, एक कार्यब्रह्म, एक कारणब्रह्म। सबके ऊपर सबसे बड़ा कारण ब्रह्म है। ‘शेष’ का भी यही अर्थ है- शिष्यते इति शेषः। लय प्रकिया से सबके लीन होने पर क्या बचेगा? कारणब्रह्म, वही अव्याकृत तत्त्व है और वही शेष है; उसी पर श्रीभगवान विष्णु विराजते हैं। अत: कहा भी- “यत्र प्रविष्टः सकलोऽपि जन्तुरानन्दसच्चिद्घनतामुपैति।” वह व्यापक तत्त्व है। जो महानुभाव श्रीवल्लभादि वृन्दावन से प्रसंग वश बाहर रह गये, वे वस्तुतः बाहर नहीं रहे। वे श्रीवृन्दावन को छोड़कर बाहर कैसे रहते? इसी उक्त युक्ति से, वे कभी वियुक्त नहीं रहे। उनके हृदय में श्रीवृन्दावन, श्रीनित्यनिकुन्ज का सदा प्राकट्य है। परन्तु सर्वसाधरण का सामर्थ्य ऐसा नहीं है। आजकल बहुत से भावों से दर्शनशक्ति व्यापिका हो रही है। वैसे भी- “अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः...” सर्वदर्शी, सर्वश्रोता वह सबमें हैं, परन्तु प्रकट अपने स्थान में गोलोक में ही होगा। “स भगवः कस्मिन्प्रतिष्ठितः स्वे महिम्नि।” यह विशेषरूप में प्राकट्य है। वह लता, भूमि सब यहीं हैं, यह ठीक है, परन्तु नेत्र दोष से वह असली रूप में नहीं दीखतीं। दोष से पित्तदोष से मिसरी भी कड़वी लगती है। ऐसे ही दोषवश व्यापक भी श्रीश्यामसुन्दर के दर्शन नहीं होते। यहाँ श्रीवृन्दावन में जहाँ कांचनमयी भूमि है, वहाँ तरु नीलमणि के हैं, जहाँ पद्मरागमणि की भूमि है वहाँ तरु हरितमणि है यों नील, पीत, हरे रूप में सब लोकोत्तर वस्तु हैं। यत्र-तत्र लता परिवेष्टित तरु मानो श्री श्रीराधाकृष्ण ही विहार करते प्रतीत हो रहे हैं। परन्तु यह सब असली रूप में दीखते नहीं तब इसे नेत्र दोष ही कहना चाहिये। इसके लिये भगवदनुकम्पा प्राप्त हो, दिव्यदृष्टि मिले तो यह सब अद्भुतता दीख पड़ने लग जाय। अन्तरंग दृष्टि से वे वृक्षादि यह सब कह रहे हैं। पर बहिरंग दृष्टिवश हमें कुछ ज्ञात नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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