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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
व्रजांगना चाहती हैं- जैसे हमारे नेत्रों में उन सर्वेश्वर प्राणाधिक प्रिय का सर्वातिशायी रूप बसा है, वैसे ही उनके शब्दस्पर्शादि भी प्रत्यक्ष हों, नेत्रों में भी वही आभा हो, स्पर्श भी वही हो। पर अपने आप जब ये प्रवृत्त होती हैं, तब इन्हें उन सबका अभाव प्रतीत होता है, वह अनुभव नहीं होता। तब आकाशवद व्याप्त पुरुषोत्तम को वनस्पतियों से पूछती हैं, अचेतनों से पूछती हैं, यह उनकी विभोरता है। यहाँ एक भाव यह भी है- दर्पी को ब्रह्म भी जड़ प्रतीत होता है। पर जो रसिकशिरोमणि हैं- जो इस सिद्वान्त के आदी हैं- “तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।” वे तो इन तरुओं को सद्घन, चिद्घन, आनन्दघन समझते हैं और अपने को जड़ समझते हैं। अत: वे ‘भूतेषु सन्तं पुरुषं वनस्पतीन् पप्रच्छुः’ व्यापक पुरुषोत्तम को वृक्षों से पूछती हैं। पूछो, पूछो। इस अन्वेषण प्रसंग में यों अन्तरंग दृष्टि से तो महत्त्व है ही पर बाह्यदृष्टि से भी महत्त्व है-ब्रह्मलोक, वैकुण्ठलोक, भूमण्डल में न ढूंढकर, व्रज में-गाँवों में ढूंढो। दर्प में मत रहो यह एक उपदेश सूक्त है- “परमिममुपदेशमाद्रियध्वं निगमवनेषु नितान्तखेदखिन्नाः। विचिनुत भवनेष वल्लवीनामुपनिषदर्थमुलूखले निबद्धम्।।” कोरे “टिड्ढाणञ्द्वयसज्दघ्नमात्रच्तपय्ठकठञ्कञ्क्वरपः” के घोषण से यदि थक गये हों तो इस उपदेश का सम्मान करो। निगमागमवेद्य को निगमाटवी में ढूँढ़ते थक गये हों तो अब उन मुग्धा गोपियों के घर में आँगन में उसे ढूंढो। वह उपनिषदर्थ श्रीबालमुकुन्द वहाँ ऊखल में बँधा है। यदि अहंकार में रह गये- ‘अजी, इन गँवार गोपों से क्या पूछेंगे और वह सर्वोपरि विराजमान तत्त्व इनके यहाँ गावों में कहाँ से आया, उसे तो महेन्द्रादि लोक में प्राप्त कर सकेंगे’- तब तो बस गये, वह वहाँ भी न मिलेगा। अहंकारियों की दृष्टि से ब्रह्म परे ही रहता है क्योंकि उनकी दृष्टि में अपने सामने ब्रह्मा भी कुछ नहीं। इधर रसिकों के यहाँ दर्प का काम ही नहीं, यहाँ तृण भी महान है। तात्पर्य यही कि जहाँ, जैसे भी उसके मिलने की सम्भावना हो, ढूंढो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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