भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 1192

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

श्री रासपञ्चाध्यायी

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अहन्तत्त्व, अव्यक्ततत्त्व महत्तत्त्व से भी परे की वस्तु है। जब उसी की सत्ता से सत्तावान् आकाश भी सर्वत्र भरपूर है, तब क्या वह सर्वत्र भरपूर नहीं? अत: कहा भी- “सर्वेषामपि वस्तूनां भावार्थो भवति स्थितः। तस्यापि भगवान कृष्णः किमतद्वस्तुरुप्यताम्।।” इसका विवेचन पीछे भी हुआ है। “कारणमेव कार्यांऽकारेण परिणमते” कारण ही कार्य के आकार में परिणत होता है, मिट्टी ही घट बन जाती है और कार्य का पर्यवसान कारण में होता है, घट फूटकर मिट्टी हो जाता है। श्रीशुक कहते हैं- हम किसका निर्णय करें, वह तो एक ही तत्त्व सर्वत्र भरपूर है।

श्रीमद्‌वल्लभाचार्य जी ने कहा- श्रीशुकाचार्य जी परम सर्वज्ञ थे, वे ‘आनन्दमात्रकरपादमुखोदरादि’ तत्त्व को सर्वत्र प्रत्यक्ष अनुभूत करते थे। तभी कहा- “...भूतेषु सन्तम्...।” अस्तु। तात्पर्य यही कि कार्यों में कारण सर्वत्र व्यापक रहता है। इस दृष्टि से जब श्रीकृष्णतत्त्व व्यापकतत्त्व ठहरता है, तब वह मधुरमूर्ति देहे-गेहे सर्वत्र विराजमान है, अणु-अणु, परमाणु-परमाणु में है। केवल कुछ आवरण है, जिससे वह सबको नहीं दिखाई देता। जैसा कि- “मायाजवनिकाछन्न...”' और “नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समाश्रितः” आदि से तत्र-तत्र बतलाया गया है।

राजा परीक्षित के नामकरण बीजनिर्देश प्रसंग में कहा है- “गर्मदृष्टमनुध्यायन्....” अर्थात गर्भ में देखे श्रीभगवान को वही बाहर आने पर ढूँढने-सा लगा। तब क्या बहिर्देश से उत्तरा के गर्भ में परीक्षित की रक्षा के निमित्त भगवान गये थे? नहीं, वे पहले ही से वहाँ थे, वहीं रहते हैं, परन्तु माया के आवरणवश नहीं दीखते, उसके हटने पर दीख पड़ने लगते हैं। माया का अपसरण दो प्रकार से होता है, एक भक्त के श्रम से, दूसरा भगवत् कृपा से। दूसरे, इन मानवपुरियों में शयन करने वाला ही पुरुष है, “पुंसु शेते इति पुरुषः” अर्थात समष्टि-व्यष्टिशयी ही तत्त्व पुरुष है। यों उस प्राकृत पुरुषेतर पुरुषोत्तम को व्रजांगना वृक्षों से पूछती हैं। कह सकते हैं, इन दृष्टियों से तो गोपांगनाओं के समीप भी वह तत्त्व विराजमान है ही और इनको भी उस व्यापक श्यामतत्त्व की स्फूर्ति होती ही है, तब ये ढूंढ किसे रही है?

यह ठीक है। उक्त रूप से गोपांगनाओं को उस तत्त्व की स्फूर्ति है ही, परन्तु वह प्रत्यक्ष में नहीं प्राप्त है। प्रत्यक्ष में जैसा भाव होता है वह इन्हें नहीं प्राप्त है- अतः उसका अन्वेषण कर रही हैं। वैसे व्रजांगनाओं के नेत्रों में श्यामल महोमय दीप्ति प्रतिष्ठित है, इन्हें सब ओर श्याम रूप ही दीख पड़ रहा है। परन्तु वे इतने ही से सन्तुष्ट नहीं, इन्हें तो शब्दस्पर्शादि भी वैसे ही चाहिये। श्रीश्यामसुन्दर के महोमय शरीर में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द सब विषय लोकोत्तर है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भगवत्प्राप्ति 1
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5. सगुणोपासना में सरलता 24
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9. शिवलिंगोपासना-रहस्य 63
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11. गायत्री-तत्त्व 97
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42. साक्षान्मन्मथमन्मथः 486
43. श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत 507
44. वेणुरव 512
45. किरातिनियों का स्मररोग 517
46. वेणुगीत 525
47. चीरहरण 691
48. वेदान्त-रससार 730
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51. सर्वसिद्धान्त-समन्वय 808
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53. श्रीरासलीलारहस्य 854
54. श्री रासपञ्चाध्यायी 1142

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