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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीस्वामी मधुसूदन सरस्वती ने श्रीकृष्ण तत्त्व के साक्षात्कार के लिये, यही श्रीवृन्दावन में चार बार श्रीगोपाल सहस्रनाम का पुरश्चरण किया। पर कुछ भी सिद्धि-सूत्र न मिलने पर अन्त में इन्होंने काशी में श्रीकालभैरव का अनुष्ठान किया। उससे उन्हें पूर्वसंचित अपने पापों का प्रभुदर्शन प्रतिबन्ध का ज्ञान हुआ, हताश भाव मिटा और श्रीकालभैरव के प्रोत्साहन से फिर श्रीवृन्दावन में आकर पाँचवी बार श्रीगोपाल सहस्रनाम का पुरश्चरण उन्होंने आरम्भ किया। उसमें पूर्व परिश्रम की सब कसर निकल गयी। “क्लेशः फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते।” रूप, लावण्य, माधुर्य और सुन्दरता की सीमा श्रीमुरलीमनोहर मनमोहन उनके समक्ष प्रकट हो गये। अब श्रीस्वामी जी को मान की सूझी, श्रीश्यामसुन्दर उनके सामने जाते हैं और वे मुँह फिराते हैं अब भक्त स्वतन्त्र, भगवान परतन्त्र हैं। ऐसे ही अवसर के लिये श्रीभगवान ने श्रीमुख से कहा है- “अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विजः।...” मैं भक्तों के अधीन हूँ[1]।
साधुओं का -भक्तों का हृदय मेरा विहार-स्थल है और मेरा हृदय साधुओं का निवास स्थान। मेरे सिवा वे और कुछ नहीं जानते। “वशीकृर्वन्ति मां नित्यं सत् स्त्रियः सत्पतिं यथा...”[3] जैसे साध्वी सती पतिव्रता स्त्री अपने सत्पति को वश में कर रखती है, वैसे ही स्वाधीनभर्तृका की तरह मुझे सद्भक्त वश में कर लेता है। तभी तो उस पूर्णतम को हाथ में माखन रख-रखकर, ताली दे-देकर गोपियों ने नचाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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