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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अस्तु, इस प्रकार ‘कृष्णविहार-विभ्रमा’ व्रजांगना आपस में एक दूसरी से कहती हैं- हे अबलाओ, तुम कहाँ श्यामसुन्दर को ढूँढती फिरती हो, वह अशेष विहार नागर कृष्ण तो हम ही हैं, लो हमें ग्रहण करो। इस प्रकार वे मनमोहनस्वरूप ही हो रही हैं। बाहर, भीतर, मध्य में उनके श्याम ही श्याम भरपूर है। वही आत्मा, मन, बुद्धि, प्राण सब कुछ हो गये हैं। यों वे तदात्मिकाः (स एव आत्मा प्राणादिर्यासान्ताः) हो गयी हैं। प्रकृत श्लोक के ‘प्रियाः प्रियस्य प्रतिरूढ़मूर्तयः’ अंश पर पहले कुछ कहा गया है। अब एक भाव और कहा जाता है- ‘प्रियाः प्रियस्य प्रतिरूढ़मूर्तयः।’ विष्णुदैवरस में ‘क्वचित् स्त्रियः पुरुषायिता भवन्ति’ से विपरीत रति का एक पक्ष है। अर्थात श्रृंगारोद्रेक में नायक नायिका बन जाता है और नायिका नायक बन जाती है। यहाँ ‘गति, स्मित.....’ आदि लीला में ‘स्वयं स्त्रियः सत्यः प्रतिरूढ़मूर्त्तयः’ हुए। श्रीव्रजांगना श्यामसुन्दर बन गयीं और व्रजचन्द्र और श्रीकृष्णचन्द्र व्रजांगना बन गये। श्रीराधा श्याम हो गयी और श्रीश्याम राधा हो गये। प्राकृत-लौकिक श्रृंगार में वस्तुतः नायिका नायक नहीं होती और नायक नायिका नहीं होता। पर यहाँ तो प्रभु साक्षात् काम और सत्यसंकल्प हैं। एक दूसरे का चिन्तन करते ही करते श्रीरसिक-विहारिणी बन जाते और वह, वह बन जाती हैं। ये दोनों प्रेमामृतसिन्धु की दो मूर्ति बनकर प्रकट होते हैं और उसी में ये दोनों प्रिया-प्रियतम गोता लगाते रहते हैं। उसमें न जाने कौन कब बदल जाता है, कुछ पता नहीं रहता। क्योंकि उस प्रेमसुधासिन्धु के उन्मज्जन-निमज्जन में यह उलट-फेर दिन में करोड़ों बार होता है। इस प्रसंग में यह भी ज्ञातव्य है कि पहले श्रीभगवान्-भजनीयतत्त्व स्वतन्त्र और साधक परतन्त्र रहता है। भक्त भगवान् को हर तरह रिझाने का प्रयत्न करता है; स्तुति आदि करता फिरता है। वस्तुतः स्वातन्त्र्य ही पुंस्त्व और पारमन्त्र्य ही स्त्रीत्व है- (स्वातन्त्र्यमेव पुंस्त्वम्, परमन्त्र्यमेव स्त्रीत्वम्) इन दृष्टियों से यही निश्चय होता है कि जीव परवश-पराधीन और ईश स्ववश-स्वाधीन है। श्रीगोस्वामी जी ने भी कहा है-‘परवश जीव स्ववश भगवन्ता।” तरंग जल के परतन्त्र रहती हैं, जीव प्रभु के परतन्त्र रहता है। इस आशय से ईश प्राप्ति के निमित्त सखीभाव की साधना होती है। पारतन्त्र्य से ही पूर्णता-स्वाधीनता प्राप्त होती है। भक्त की दृढ़ साधना से फिर धीरे-धीरे श्री भगवान परतन्त्र-भक्त के अधीन होने लगते हैं और भक्त स्वतन्त्र, दुरूह वेदान्त और कोमल भक्तिरस में समान भाव से वर्त्तमान। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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