विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
किसी की बड़ी सुन्दर सूक्ति है-
किन्हीं महापुरुष के पंचविध क्लेश-अविद्या, अस्मिता, राग, देष, अभिनिवेश क्षीण हो चुके थे, शान्त होकर पंचकोशातीत में उनका मन लग गया। तत्त्व साक्षात्कार उन्हें हो चुका था, उन्हें कहीं श्यामसुन्दर के दर्शन हो गये। अब प्रयत्न करते हैं पर समाधि ही नहीं लगती। किसी ने कहा है कि ‘जौ लों तोहि नन्द को कुमार नाहीं दीठि परौ, तौ लौं ध्यान धारणा समाधि तू करि ले।’ उसका दर्शन हो जाने के बाद चित्त खिंच जाता है, पर पवित्र अन्तकरण वालों का ही वहाँ खिंचाव होता है। जैसे चुम्बक स्वच्छ लोहे को जल्दी खींच लेता है, वैसे ही वह श्यामसुन्दर महात्माओं के चित्त को जल्दी खींच लेता है। उन्हें ज्ञात ही नहीं होता कि वे श्यामसुन्दर से क्यों इतना प्रेम करते हैं? यह श्रीभगवान में विराजमान चित्ताकर्षकत्व गुण का माहात्म्य है। यह तो हुई योगीन्द्र-मुनीन्द्रों की बात। पर यहाँ इन गँवारी ग्वालिनियों ने तो उन योगीन्द्र-मुनीन्द्र मनोहारी श्रीभगवान के भी मन को खींच लिया। उन्हें श्रीभगवान होकर भी इन गोपरामाओं के साथ रमण करने की इच्छा हो गयी।
यह तो मानना ही पड़ेगा कि सनकादि, शुकादि अन्य आत्मारामों की अपेक्षा श्रीभगवान में अधिक आत्मारामत्व था। पर इन्हें कम आत्मारामत्व वाली अथवा जो आत्मारामत्व को जानतीं भी नहीं, उन गोपांगनाओं ने इनके आत्मारामत्व को छीन लिया और इन्हें ‘गोपीराम’ या गोपीरमण बना दिया। निष्काम को सकाम बना दिया। पूर्णकामता आदि छिप गयी, मन गोपरामाओं में खिंच गया। अब यह दशा हो रही है कि इनके पीछे-पीछे घूम रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज