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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
हमारा प्रेम कांचन की तरह खरा होना चाहिये। आज प्रेम कम, बल्कि नहीं के बराबर है और उसका दिखावा, ढिंढोरा ही सबसे ज्यादा है पर यह है अपने को धोखा देना ही। एक भक्त कहना है- हम प्रेम तो करें, पर यदि वे न जानें तब करें; अथवा उनकी ओर से अधिक उपेक्षा, तिरस्कार, डाट-फटकार मिले, तब करें। “प्रेम कनक ही बात चढे़” यह तो यहाँ शर्त ही नहीं थी कि- वे प्रेम करें, वे सुन्दर हों, तब हम प्रेम करेंगे। यह है प्रेम चीज, यह जिसमें हो वही धन्य है। मिसरी जैसी मीठी लगती है, ब्रह्म अथवा ब्रह्मस्थानीय श्रीकिशोर नटनागर प्रभु वैसे मीठे नहीं लगते, कटु लगते हैं। खेल-तमाशों में, उपन्यास-नाटकों में, थियेटर-सिनेमा में मन लगता है। दोषवश जैसे मिसरी में मिठास नहीं प्रतीत होती, वैसे ही मायावश सर्वान्तरतम प्रियतम प्रभु में मिठास नहीं प्रतीत होती, पर वास्तव में मीठे वहीं हैं। वे प्रेम के योग से ज्ञात होते हैं। प्रेम के बिना अचिन्त्य, अनन्त, अव्यक्ततत्त्व भी फीका लगता है, जो मधुरिमा का उद्गम स्थान है। प्रेम की महिमा से सुतृप्त हुआ चातक अमृत भी नहीं चाहता। इसलिये श्रीव्रजांगना प्रेम चाहती हैं, आदर नहीं। प्रेम होने से ही परमानन्द की प्राप्ति होती है। कंस आदि ने भी प्रभु श्रीकृष्ण का दर्शन किया, पर, आनन्द-मिठास उन्हें अनुभूत नहीं हुई, क्योंकि वहाँ प्रेम नहीं था। अतः ये गोपरामा प्रेम की भिक्षा माँगती हैं। जहाँ प्रेम मिला कि प्रेमोन्माद हुआ, वहाँ संयोग में भी वियोग की उच्च दशा का उदय हो जाता है। अतः रासेश्वरी की, प्रेम की और प्रिय सम्मिलन की उत्कट इच्छा रहती है- प्रेम, प्रियतम दोनों मिलें। ऐसे ही श्रीश्यामसुन्दर भी दोनों चाहते हैं; जिस प्रेमसिन्धु की ये दोनों-श्रीश्यामाश्याम पूतरी हैं, उसी से प्रेम बना। इन दोनों ही के भीतर प्रेम भी और प्रियतम भी हैं। इधर श्रीरासेश्वरी के स्वरूप में प्रेम, प्रियतम विराजमान हैं, उधर श्रीरसिकविहारी में भी ऐसे ही प्रेम, प्रियतम इसकी भिक्षा माँगते है। दोनों विराजमान हैं। फिर भी दोनों भीतर-बाहर एक हैं। बरफ पूतरी की तरह प्रेम, प्रियतम एक ही प्रेमसिन्धु से निकले हैं, एकत्र ही स्थित हैं। फिर भी “रटत पियास पियास” ‘हा प्राणजीवन कब मिलोगे?’ यह प्रेमोन्माद की स्थिति है। असली वस्तु प्रेमोन्माद को उत्पन्न करके विप्रयोग में संयोग भावना का हो जाना है। परन्तु इसके बिना संयोग में वियोग प्रतीन न हो जाय इसलिये श्रीभगवान ने ‘गत्यानुरागस्मितविभ्रमेक्षितैः’ से संत्राण करने के लिये यह प्रेमोन्माद प्रदान किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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