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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
किसी भक्त की सूक्ति है-
हमारे प्रियतम चाहे सुन्दरों के सरताज हों, चाहे गुणगण से विहीन हों, चाहे वे मनमोहन हमसे प्रेम करें, चाहे न करें, चाहे वे हम पर प्रसन्न हों, चाहे नाराज, पर हमारे तो वे ही प्राणधन हैं, सर्वस्व हैं। जहाँ प्रेमियों की गणना चलेगी। एक प्रेमी चातक भी गिना जायगा। प्रेमियों के पारखी श्रीगोस्वामी जी कहते हैं- “जलद जनम भरि सुरति बिसारै, माँगत जल पवि पाहन डारे।” प्रेमी स्वाति बिन्दु माँगता है और प्राणधन मेघ, ओला, पत्थर बरसाता है। परन्तु चातक कभी उसकी इस निठुरता को मन में भी नहीं लाता। मेघ कभी उसे वर्षभर में भी याद नहीं करता, कभी ध्यान पर भी नहीं लाता। एक तरफ यह हाल है और दूसरी ओर प्रेमी एकाध वस्तु नहीं, किन्तु अपना सर्वस्व वार डालने को तैयार है। गंगाजल, यमुनाजल, साक्षात सुधा भी चातक को नहीं चाहिये। उसको तो वही एक, केवल एक ही, स्वाति बिन्दु चाहिये। गंगा के तट पर एक वृक्ष था। उसकी एक शाखा गंगा में लटक रही थी। चातक-पक्षिराज अपने प्राण-जीवन की चिन्ता में उसी शाखा पर बैठा था। इसी समय पीछे से एक बहेलिया ने तीर मारा। निशाना सच्चा बैठा, उसके प्राणपखेरू उड़ गये, वह हवा के झोंके से गंगा में गिर पड़ा। परन्तु अन्त में मरते समय भी उसका नियम नहीं टूटा, स्वभाव से ही उसने अपना मुँह बन्द कर लिया- कहीं मरने पर भी गंगाजल मुंह में न चला जाय, मेरे तो मुख में बस वही स्वाति बिन्दु हो। कितना ही कोई अपना हो, निजी हो, पर उसके भी प्रतिकूल आचरण पर एक दिन कोप आ ही जाता है। किन्तु चातक को नहीं आता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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