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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
प्रेम और प्रेमी की जाति अलग है। पर यहाँ तो दोनों एक ही हैं। पूतरी जल में पड़ी है, पर प्यासी मरती है, मानों अनादिकाल से जल नहीं मिला। यही प्रिया-प्रियतम की स्थिति है। यह अचिन्त्य, अनन्त, अखण्ड, अव्यक्त, प्रत्यक्चैतन्याभिन्न तत्त्व की बनी पूतरी हैं। अनेक शब्दों में कह सकते हैं- प्रेमामृतसिन्धु, अचिन्त्यरसामृतसिन्धु, पूर्णानुराग-रससारसिन्धु से दो पूतरी निकलीं- श्रीराधा, श्रीश्याम। अब इनके बाहर-भीतर सर्वत्र वही प्रेमामृत आदि तत्त्व है। वहाँ प्रेम स्थायी है, जैसे सूर्य में प्रकाश नित्य है। प्रेमानन्द महासूर्य में कभी भी प्रेम का अभाव नहीं हो सकता। अपने स्वरूप के पूर्ण ज्ञान में पूतनी को प्यास ही कैसी? पर प्रेमोन्माद की स्थिति है-‘मैं प्यासी हूँ।’ पूतरी की तरह प्रिया-प्रियतम दोनों उस प्रेमसिन्धु में है। अनन्तानन्त अनुराग होने पर भी उसके लिये दोनों अधीर रहते हैं। ‘इनके मिलने के मूल्य का कण भी हमारे पास नहीं’ यही भाव, यही प्यास दोनों को सदा तड़फड़ाती रहती है। सूर्य से प्रकाश कभी जाता ही नहीं। पूतरी से जल कभी जाता नहीं। वैसे ही प्रेम जिनमे सदा, नित्य रहता है, उन श्रीश्यामाश्याम को सदा यही भावना रहती है कि कब प्रेमकण मिले। वे सदा प्रेम को चाहा करते हैं, उसके लिये विकल रहते हैं, पर उन्माद में, अत्यन्त संयोग में सर्वांगीण सम्प्रयोग के होने तथा रहने पर भी उसकी प्राप्ति की महती आकाक्षां बनी ही रहती है। उसके प्राप्त होने पर प्रेमोन्माद में उसे भूल जाते हैं। प्रेमोन्मादमूलक दो आकांक्षाएँ प्रणयी को होती हैं- एक प्रियतम के सम्मिलन की अभिलाषा और दूसरी संयोगमूलक अनुराग की उत्कण्ठा। प्रेमी की स्थिति कुछ विचित्र रही है, वह भजन करने की अपेक्षा प्रेम करना ही उत्तम समझता है। प्रयत्न नहीं करने पर भी प्रेम प्राप्त करने को तैयार रहता है। किसी भी तरह प्रियतम मिले, यही उसका ध्येय रहता है। प्रेम में गुण-दोष की परीक्षा को या विवेक को स्थान नहीं है। कहा है-
श्रीअम्बा पार्वती श्रीशिव प्राप्ति के निमित्त तप कर रही थीं। उसी प्रसंग पर सप्तर्षि उनके पास गये। परीक्षा में निमित्त भगवान शिव की उनके सामने निन्दा की। पर श्रीपार्वती अटल निश्चय लेकर बैठी थीं। वह कोई बालू की भित्ति न थी, जो फूँक से उड़ जाती। उन्होंने अन्त में स्पष्ट कह दिया- ‘हमने माना कि महादेव अवगुण-दोष के घर हैं और विष्णु सब गुणें के स्थान, पर जिसका मन जहाँ रम गया, उसे तो उसी से काम है।” उसे गुण-दोष देखने का समय ही कहाँ? ऐसे ही श्रीव्रजांगना श्रीकृष्ण से प्रेम करती हैं। उन्हें यह ज्ञान ही नहीं कि उनके प्रेमास्पद सुन्दर हैं या असुन्दर, गुणी हैं या निर्गुणी। वे इन सब बातों को कुछ नहीं जानतीं, केलव प्रेम करना जानती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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