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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
यहाँ एक भाव यह भी है- श्रीवल्लभाचार्य जी ने अणुभाष्य में कहा है- किसी भावुक के चिन्तन से जो अभेद होता है, यह एक संचारी भाव है। इसमें तीन अवस्थाएँ होती हैं। यहाँ ‘छान्दोग्योपनिषद्’ का यह प्रसंग उदाहरण है- “अहमेव पुरस्तात्” इत्यादि अर्थात् पहले भावुक को जगत् की ओर अपनी भी विस्मृति हो जाती है। फिर केवल अपनी ही स्मृति रहती है- “अहमेव पुरस्तात् दक्षिणतश्चोत्तरेण” वह सम्पूर्ण विश्व में अपना ही अस्तित्व देखता है। दूसरी स्थिति में वह भगवान को ही सर्वत्र देखता है- “भूमैव पुरस्तात्, भूमैव”। अन्त में तीसरी स्थिति- “अहमेव पुरस्तात्” या “आत्मैवोपरिष्टात्” की होती है। अर्थात् मैं ही अथवा आत्मा ही सर्वत्र भरपूर है, यह भावुक ज्ञानी को अन्तिम निश्चय होता है। भगवान ने कहा है-
मेरे गुणों के श्रवण करने से मेरी लीला से भावुक के चित्त की सर्वाधिष्ठान मुझमें गति होती है। जैसे गंगा का जल समुद्र में जाता है, भावुक का चित्त वैसे मेरी ओर प्रवाहित होता है। भावुक के द्रुत चित्त की यह स्थिति है। चित्त की द्रुतता उसकी निर्मलता पर निर्भर है। “भक्तिरसायन’ में कहा है- जल के प्रधान स्थान ‘टंकी’ आदि में रंग छोड़ने से वह जहाँ-जहाँ स्पष्ट होगा; अपने में रँग लेगा। जहाँ-जहाँ वह रंगीन जल निकलेगा- कल आदि के द्वारा-वहाँ वह जिस-जिस पर पड़ेगा-अपने रंग में मिला लेगा। सभी का बाह्य और आभ्यन्तर दर्शन-ग्रहण अन्तःकरण से ही होता है। वह यदि लाक्षा की तरह या ‘टंकी’ के सदृश श्याम रंग में रँगा है तो अब जो भी उससे गृहीत होगा चाहे वह आन्तर, बाह्य, पुरस्तात्, उपरिष्टात्, हरित, पीत कैसा भी हो-उस रंग में रँगा जाकर ही गृहीत होगा। अतः श्रीश्यामसुन्दर भगवान को अपने हृत्पुण्डरीक पर विराजित करके व्रजांगना सब कुछ श्याममय ही देखती हैं- “जिस देखो तित श्याममयी है।” व्रजांगना अपने मन में विचारती हैं- ‘ये लाग बावरे हैं या हम ही बावरी हैं, यह लोगों के नेत्र में विकार हो गया है या हम ही किसी नेत्ररोग से ग्रस्त हो गयी हैं! क्योंकि लोग हरे, पीले, लाल कई रंग बतलाते हैं, पर हमें तो सर्वत्र श्याम ही श्याम दीख पड़ रहा है।’ इस स्थिति में- “भूमैवावस्तात् भूमैवोपरिष्टात्...................।” की प्रतीति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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