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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीगुसाईं जी ने भी ग्रामवधूटियों की उक्ति में कहा है- ‘जो पाइय माँगे विधि पाहीं, सखि राखिय इन नैनन माहीं।’ उन ग्रामवधूटियों की तो यह वासनामात्र थी कि यदि हमें ब्रह्मा वर देने को प्रस्तुत हों, तो हम यह वर माँगे कि इन भगवान श्रीराम को अपने नेत्रों में पधराकर रखें, पर इन व्रजवधूटियों ने तो यह साक्षात ही कर दिखाया। अथवा श्रीकृष्ण पादपद्मपराग को ही इन्होंने अंजन बनाया। इस प्रकार व्रजवनिताएँ अपने को श्रीश्यामसुन्दर से ही भूषित करती थीं। उनकी दृष्टि में इसके अतिरिक्त किसी भी आभूषण को पहनना अत्यन्त ही हेय है। जैसा कि एक स्थल में उनकी स्पष्ट उक्ति है-
ऐसे सिद्धान्त की व्रजांगनाओं ने बाहर-भीतर सर्वत्र श्रीश्यामसुन्दर प्राणधन को ही धारण किया। इस प्रकार का तादात्म्य श्रीगोपांगनाओं को हुआ। अन्यत्र तादात्म्य आरोपित होता है, परन्तु यहाँ नहीं। अतः श्रीश्यामसुन्दर भगवान की गति, स्मित, प्रेक्षण, भाषण आदि श्रीव्रजवनिताओं में और व्रजवनिताओं के मन, बुद्धि आदि श्रीश्यामसुन्दर भगवान में आरूढ़ हुए। भगवान श्रीकृष्ण के साथ यों अभिन्नभाव से उनकी रसमयी कायिकी, वाचनिकी, मानसी लीला से, विहार से उनमें जो विभ्रम उत्पन्न हुए, वे सब व्रजदेवियों में उत्पन्न हुए। श्रीनवलकिशोर की सभी चेष्टा गति, भाषण, दर्शन आदि जो-जो थीं, सब इन व्रजांगनाजन में प्रस्फुटित हुई। इतना ही नहीं, बल्कि इतनी ऐक्यापत्ति हुई कि इन व्रजरमणियों की लीला से श्रीराधाविहारी का विभ्रम हुआ- “श्रीकृष्णविहारस्य विभ्रमो याभ्यः।” अनुकरण पूरा उतरा, सर्वथा तन्मयता अथवा लीलाओं ने गोपरामाओं को बलात गृहीत किया। यों “गतिस्मित” इत्यादि संगत हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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