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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
ऐसे उन प्रभु प्रियतम प्राणधन के विप्रयोग से श्रीव्रजांगनाओं को इतना दारूण सन्ताप हुआ कि वह अकथनीय ही है। उन्हें उस समय समस्त आह्लादकर वस्तु दुःखद प्रतीत हुईं। श्रीमद्वल्लभाचार्य जी के कथनानुसार यह ताप पहले ऊपर ही ऊपर रहा, फिर अन्तर में प्रविष्ट होने लगा, परन्तु अन्तःप्रविष्ट थे-लीलारस सहित श्रीकृष्ण, वे कहीं अन्यत्र नहीं गये थे। वहीं से गोपिकाओं के अन्तर से उनकी लीलाशक्ति प्रकट हुई। तब उस लीलाशक्ति की प्रेरणा से रमापति के गति विभ्रम आदि से आक्षिप्त चित्त होकर तथा तदात्मिका बनकर श्रीमती व्रजागंनाओं ने उन्हीं की उन-उन चेष्टाओं को ग्रहण किया-
वियोग ऊँची चीज है, मूल्यवान् वस्तु है। किसी ने कहा- ‘संगमविरहविकल्पे, वरमिह विरहो न संगमस्तस्याः। संगे सैव तथैका त्रिभुवनमपि तन्मयं विरहे’ हमें तो वियोग चाहिये, संगम नहीं, पर यह बड़े दीर्घदर्शियों की बातें हैं। संयोग में एक ही जगह प्रियतम होता है, पर वियोग में तो सारा विश्व प्रियतममय हो जाता है। ‘जित देखूँ तित श्याममयी है।’ एक अवस्था इससे भी ऊँची है, उसमें संयोग और वियोग दोनों में कष्ट ही कष्ट है-‘अदृष्टे दर्शनोत्कण्ठा दृष्टे विश्लेषभीरुता। नादृष्टेन न दृष्टेन भवता लभ्यते सुखम्।।’ हे प्राणधन! जब तक आपके दर्शन नहीं होते तब तक तो दर्शन की उत्कण्ठा लगी रहती है और दर्शन हो जाने पर अगले क्षण में होने वाले वियोग की चिन्ता लग जाती है। क्या करें, किसी भी तरह चैन नहीं है, न दर्शन से ही सुख मिलता है और न अदर्शन से ही। संयोग-वियोग किसी में शान्ति नहीं। सखि! अभी तो श्यामसुन्दर मदनमोहन का यह भुजाश्लेष मिला है, पर यह भुजलताबन्ध कब तक प्राप्त रहेगा। यह संश्लेषजन्य सुख कब तक रहेगा, कुछ ठिकाना नहीं। हाय! कहीं अभी विश्लेष न आ जाय! यों ऊँचे प्रेमियों को दुःख ही दुःख बना रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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