भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
आरम्भ में जो ‘श्रीभगवानुवाच’ ऐसा कहा गया है वहाँ ‘श्री’ शब्द उन्हीं का द्योतक है। यह ‘श्री श्रयते हरिं या इति श्रीः’ जो हरि का आश्रय ले वह श्री नहीं है, बल्कि ‘श्रीयते इति श्रीः’ जिसका आश्रय लिया जाता है वह श्री है। अनन्तकोटि-ब्रह्माण्डान्तर्गत सौन्दर्य-माधुर्य सुधा की अधिष्ठात्री जो महालक्ष्मी हैं उनके द्वारा भी जिनके चरणकमल सेवित हैं वे श्रीवृषभानुदुलारी ही श्री हैं। उनकी प्रसन्नता के लिये ही भगवान ने यह लीला की थी। रासलीला एक नायिका से नहीं होती इसीलिये अन्य गोपांगनाओं का आवाहन किया गया था। अब यदि उन सबका आदर करते हैं तो सम्भव है श्रीराधिका जी रुष्ट हो जायँ, क्येांकि वे मानिनी हैं न। अतः भगवान उनका तिरस्कार करते हैं जिसमें वे दयावश स्वयं ही कह दें कि श्यामसुन्दर! अब आप इनका निराकरण क्यों करते हैं, आ गयी हैं तो इनकी इच्छा भी पूर्ण कीजिये। अथवा यह भी सम्भव है कि अन्य गोपियाँ तो आ गयी हों और राधिका जी अभी न आयी हों। इसलिये भगवान उनकी प्रतीक्षा में हों; क्योंकि इस लीला की अधिनायिका तो वे ही हैं। अतः वे अन्य गोपिकाओं को इसलिये सीधा-सीधा उत्तर नहीं देते जिसमें राधिका जी के आने पर उनका मान रखने के लिये यह कह सकें कि हमें आपकी प्रतीक्षा थी इसी से अभी कोई निश्चय नहीं हुआ। इस गोपिका यूथ में कितनी ही व्रजांगनाएँ मानिनी हैं। इसी से भगवान ऐसे वचन कह रहे हैं जिनके अनुकूल और प्रतिकूल दोनों अर्थ हो सकते हैं। मानिनी नायिका का नायक पर आधिपत्य रहता है; इसलिये उसे ऐसे वाक्य बोलने पड़ते हैं, जिनका अर्थ बदलकर वह अपने को उनके कोप का भाजन होने से बचा सके। यह रासलीला कोई उपहास या प्राकृत लीला नहीं है। यह तो शुद्ध परब्रह्म का नित्य लास्य है। रास का स्वरूप क्या है?- “माधवं माधवं वान्तरे अंगना अंगनामंगनामन्तरे माधवः।” एक-एक गोपी के अनन्तर भगवान हैं और भगवान की एक-एक मूर्ति के अनन्तर एक-एक व्रजांगना है। सांख्यवादियों का कथन है- ‘क्षणपरिणामिनो हि भावा ऋते चितिशक्तेः’। वह चिति शक्ति ही भगवान कृष्ण हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज