भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
कामिनी नायिका को नायक में तभी तक प्रेम होता है जब तक काम विकार रहता है। परन्तु आपका प्रेम निरुपाधिक है, वह कभी विचलित होने वाला नहीं है। उसमें अंग-संगादि किसी काम की गन्ध भी नहीं है। अतः ‘भवत्यः’ आप पूजनीया हैं। उद्धवादि भक्तजन भी आपका पूजन करना चाहते हैं- “आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्याम्।” इसलिये अब आप जाओ, अपने पतिदेवों का ही पूजन करो। उसी से मेरा भी पूजन हो जायगा; क्योंकि मैं सर्वान्तरात्मा हूँ। यह गोपिकाओं के उपलक्षण से संन्यासनिष्ठा के अनधिकारियों का उपदेश है कि तुम अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करते हुए ही मुझ सर्वान्तरात्मा की आराधना करो। इसी उक्ति से वे अधिकारिणी गोपांगनाओं से कह रहे हैं कि “हे गोपियों! तुम्हें सारे बन्धनों को काटकर अब मेरी ही आराधना करनी चाहिये; क्योंकि ‘अभिस्नेहात्’ अभितः- सब ओर से मुझमें ही स्नेह होने के कारण आप यहाँ आयी हैं। इसलिये अब आपके लिये कोई और कर्तव्य नहीं है।”
यदि जीव का प्रेम सब ओर से सिमटकर एक ओर ही लग जाय तो वह अपना लक्ष्य बहुत जल्द प्राप्त कर सकता है। परन्तु इसका प्रेम तो छितराया हुआ है। वह स्त्री-पुत्र, धन-धरती आदि कितनी ही वस्तुओं में बँटा हुआ है। इसीलिये उससे कोई सफलता नहीं होती। अतः आवश्यकता इस बात की है कि उस प्रेम की सारी धाराओं को रोककर केवल भगवान में ही लगा दिया जाय। परन्तु पहले-पहल ऐसा होना सम्भव नहीं है। अतः आरम्भ में ऐसा करना चाहिये कि अपनी इन्द्रियों के व्यापारों को भगवत्सम्बन्धी कर दिया जाय। श्रोत्रों को अन्य शब्दों से हटाकर केवल भगवत्सच्चरित्र श्रवण में लगाओ, जिह्वा से केवल भगवन्नाम जपो और भगवत्प्रसाद का रसास्वादन करो, नेत्रों से केवल भगवद्विग्रह के अनुपम सौन्दर्य का अवलोकन करो। इसी प्रकार सारे विषयों को भगवन्मय कर दो। बस, एकमात्र भगवान ही आपकी प्रीति के विषय बन जायँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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