भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः ऐसी बात भी नहीं है कि प्रभु कभी किसी की कामनापूर्ति करते ही न हों। इसीलिये,
ऐसी उक्ति है। परन्तु यहाँ तो व्रजांगनाओं के साथ उपहास हो रहा है। इस प्रकार यद्यपि उन्होंने व्रजांगनाओं का समाश्वासन भी कर दिया, तथापि बात वही रही कि गोष्ठ को जाओ, देरी मत करो। यह नियम है कि जिस समय प्रियतम अपने प्रेमी का निराकरण करता हो उस समय यदि वह मुस्काने लगे तो उसके तिरस्कार का प्रभाव नहीं पड़ता। वह बात उपहास में सम्मिलित हो जाती है। जिस प्रकार यदि कोई पुरुष वैराग्य का उपदेश कर रहा हो और स्वयं अच्छे ठाट-बाट में हो तथा आकृति से भी रागी-सा जान पड़ता हो तो उसके कथन का कोई प्रभाव नहीं होता। अतः उपदेश के समय अनुकूल आचरण और मुद्रा की भी बहुत आवश्यकता है। इसी से जब परमानन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र उनका स्वागत करके फिर मन्द मुस्कानपूर्वक निराकरण करना आरम्भ किया तो वे समझ गयीं कि यह केवल उनका उपहास है। अब मानिनी व्रजांगनाओं की स्थिति भी समझ लेनी चाहिये। उनकी स्थिति बहुत ऊँची है। मानिनी गोपांगनाएँ वे हैं जो प्रभु पर आत्मीयता का अधिकार रखती; वे उन्हें अपने अधीन समझती हैं और उनसे जो चाहें करा सकती हैं। उन्हीं के विषय में यह कहा गया है कि वे भगवान् को कठपुतली के समान नचाती थीं- ‘ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पै नाच नचावैं।’ दूसरी अनभिज्ञा गोपियाँ हैं। साहित्य दृष्टि से वे मुग्धा नायिका हैं। वे प्रभु के अनुकूल रहकर उनका अनुग्रह प्राप्त करना चाहती हैं। ये प्रभु की प्रार्थना करती हैं किन्तु जो मदीयत्वाभिमान वाली हैं उनकी प्रार्थना स्वयं प्रभु करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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