भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
सुनते हैं, ध्रुव जी को छः महीने में ही भगवान का दर्शन हो गया था। जिस समय भगवान उनके समक्ष प्रकट हुए, ध्रुव ने कहा-‘भगवन! मैं तो सुनता था आप बड़े दुराराध्य हैं, परन्तु मुझ पर आपने इतनी शीघ्र कृपा कर दी।’ भगवान ने कहा-‘ध्रुव, तुम यह मत समझों कि हम छः मास में ही मिल गये हैं; आओ देखो, हमारी प्राप्ति के लिये तुम्हारे कितने शरीर शुष्क हुए हैं।’ ध्रुव जी ने दिव्य-दृष्टि से देखा कि उनके सहस्रों शरीर कन्दराओं में सूखे हुए पड़े हैं। भगवान बुद्ध की तो प्रतिज्ञा थी- “इहासने शुष्यतु मे शरीरम्।” अतः असफलता से हताश मत हो। साधन में लगे रहो। देखो, वायुयान आदि लौकिक पदार्थों के आविष्कार में भी कितने समय, धन, जन-समुदाय का क्षय हुआ है। भगवत्प्राप्ति तो उसकी अपेक्षा कहीं अधिक मूल्यवान् है। बस, लगे रहो, भगवान अवश्य कृपा करेंगे। तुमने टिट्टिभ की गाथा सुनी होगी। समुद्र उसके अण्डे को हर ले गया था। इससे कुपित होकर उसने समुद्र को सुखा डालने का निश्चय किया। वह अपने पंजे में बालू भरकर समुद्र में डाल देता और चोंच से एक बूँद पानी लेकर समुद्र से बाहर डाल देता। उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि चाहे कितने ही जन्म बीत जायँ समुद्र को अवश्य सुखा डालना है। यह सब लीला देवर्षि नारद जी ने भी देखी और टिट्टिभ की दुर्दशा देखकर उन्हें उस पर बड़ी दया आयी। उन्होंने यह सारा समाचार पक्षिराज गरुड़ को सुनाया और उन्हें अपने सजातीय की सहायता करने के लिये उत्तेजित किया। फिर क्या था? पक्षिराज के तो पर मारते ही समुद्र में खलबली पड़ गयी; उसे तुरन्त हार माननी पड़ी और टिट्टिभ के अण्डे लाकर देने पड़े। यह समुद्र का पराजय टिट्टिभ के अपने प्रयत्न से नहीं हुआ था। उसमें तो गरुड़ जी की सहायता ही कारण थी। परन्तु यदि टिट्टिभ ऐसा हठ न करता तो गरुड़ जी क्यों आते? इसी प्रकार जो लोग दत्तचित्त होकर तन-मन से लग जाते हैं उन्हीं पर भगवान की कृपा होती है और उसी से वे भगवत्प्राप्ति करने में समर्थ होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज