भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
देखो जिस समय हनुमान जी लंका को गये थे उस समय पहले उन्हें सुरसा मिली। उसे उन्होंने अपने पुरुषार्थ से प्रसन्न कर उसका आशीर्वाद प्राप्त किया। वह देवमाता थी, अतः सात्त्विकी प्रवृत्ति-रूपा होने के कारण उसे अपने अनुकूल कर लेना ही उचित था। उसके पश्चात छाया ग्राहिणी सिंहिका राक्षसी मिली, जो समुद्र में ऊपर उड़ने वाले प्राणियों की छाया पकड़कर उन्हें गिरा लेती और फिर खा जाती थी। वह तामस प्रवृत्ति थी। उसे उन्होंने मार डाला। फिर लंका में पहुँचने पर उन्हें लंकिनी मिली। उसने भी उनका मार्ग रोका, किन्तु उसे उन्होंने एक मुक्के से ही ठीक कर लिया। वह राजस प्रवृत्ति थी; उसे दमन से शिथिल कर देना ही ठीक था। इसी प्रकार हमें सात्त्विक प्रवृत्ति को बढ़ाना चाहिये, राजस प्रवृत्ति को शिथिल कर देना चाहिये और तामस का सर्वथा नाश कर देना चाहिये। वे तो पापरूपा हैं। अतः जो कर्म शास्त्र-विहित्त हैं उनका तो यथाशक्ति पालन करो। ‘यथाशक्ति’ शब्द का प्रयोग विहित कर्मों के लिये ही हो सकता है, पापकर्मों में ‘यथाशक्ति’ शब्द की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। विहित कर्मों में भी जिनके न करने से प्रत्यवाय होता है वे तो अवश्य करने चाहिये। अग्निष्टीमादि याग अत्यधिक अर्थसाध्य हैं; प्रत्येक व्यक्ति उनका अनुष्ठान करने में समर्थ नहीं है। इसलिये ‘यथाशक्ति’ ‘शब्द का प्रयोग उन्हीं के लिये किया गया है। सन्ध्या, अग्निहोत्र एवं बलिवैश्वदेव आदि कर्मों को, जिनमें न तो विशेष परिश्रम है और न व्यय ही, तो अवश्य करना ही चाहिये। आजकल एक परिष्कृत सनातन धर्म का आविर्भाव हुआ है। उसके अनुयायी शास्त्र के किसी अंश को तो प्रामाणिक मानते हैं और किसी की उपेक्षा कर देते हैं। परन्तु इसे शास्त्र का प्रामाण्य स्वीकार करना नहीं कहा जा सकता। इसे तो स्वेच्छाचार ही कहा जायगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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