भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
श्रुति कहती है- उस समय तो न बाह्य जगत् का ज्ञान रहता है और न आन्तर का- ‘नान्तरं किंचन वेद न बाह्यम्।’ उस समय उसका चित्त भी अपने अधिष्ठानभूत चिदात्मा में लीन हो जाता है- “तच्चापि चित्तवडिशं शनकैर्वियुङ्क्ते।” जिस समय जीव को अपने एकमात्र प्रियतम परमानन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र का आश्लेष होता है उस समय जो आनन्दातिरेक होता है उसमें उसके मन और इन्द्रिय आदि ऐसे परिप्लुत हो जाते हैं कि उसे अपना भी भान नहीं रहता। उस स्थिति में भक्त और भगवान का सर्वथा अभेद हो जाता है। भगवान की नित्यनिकुंज-लीला में श्रीवृषभानुदुलारी के साथ उनका नित्य संयोग रहता है। वहाँ उनका कभी विप्रयोग नहीं होता, क्योंकि भगवान कृष्ण अचिन्त्यानन्द-सुधासिन्धु हैं और श्रीरासेश्वरी जी उनकी मधुरिमा है। वस्तुतः वे एक ही तत्त्व हैं। केवल रसानुभूति के लिये ही उनके दिव्यमंगल विग्रहों का प्रादुर्भाव हुआ है। वे यद्यपि सर्वदा एक रूप हैं तथापि लीला विशेषोपयुक्त रसाभिव्यक्ति के लिये उनका विप्रयोग आवश्यक है। अतः लीला-विशेष के विकास के लिये ही उनका द्वैधीभाव होता है। उस समय जितने भावों की अपेक्षा है उन सभी का प्रादुर्भाव होता है। यह ठीक है कि उस नित्य लीला में उनका कायिक और ऐन्द्रियक विप्रयोग कभी नहीं होता। उनके मन, प्राण, नेत्र तथा प्रत्येक अंग-प्रत्यंग परस्पर संश्लिष्ट हैं। तथापि उस संश्लेष से प्रेमातिशय के कारण उनमें जो विह्वलता आती है उससे श्रीवृषभानुनन्दिनी का मन कृष्ण सुख का अनुभव नहीं करता और श्रीकृष्णचन्द्र का विहल मन श्रीनिकुन्जेश्वरी जी की माधुर्यसुधा का आस्वादन करना भूल जाता है। यहाँ केवल इतना ही विप्रयोग होता है। अब इधर अध्यात्म में आइये। यह बुद्धिरूप प्रमदा सुषुप्ति में थोड़ा-सा उस ब्रह्मसुख का रसास्वादन करती है। इसी से उस समय इसे आत्मविस्मृति हो जाती है। बस, जिस समय बुद्धि अपने को भूली कि उसे प्रपंच का भान नहीं रहता। फिर तो बुद्धि नहीं रहती, मन मन नहीं रहता और प्राण प्राण नहीं रहते। वे सब केवल चिन्मात्र हो जाते हैं। इसी से भगवान ने कहा है कि “हे बुद्धियो! जब तक तुम मुझमें ही स्थित न होगी तब तक तुम्हारे बाल-बच्चे रूप ये इन्द्रियाँ और मन आदि रोते ही रहेंगे।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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