भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
मुनि कुमार बोला-‘राजन्! वस्तुतः यह प्रपंच संकल्प मात्र है। साधारण लोगों के संकल्प शुद्ध नहीं होते, उनमें कई संकल्पों का सांकर्य रहता है; इसलिये वे सिद्ध भी नहीं होते। यदि हमारा संकल्प सिद्ध हो जाय और उसमें अन्य संकल्पों का मेल न रहे तो हम उसे प्रत्यक्ष व्यावहारिक रूप में देख सकते हैं। जिस संकल्प की पूर्वकोटि और परकोटि ज्ञात होती है वह तो कल्पना ही है, वह सिद्ध संकल्प नहीं है। यदि हमारा संकल्प ऐसा हो जाय कि उसकी पूर्वकोटि का (अर्थात वह कब और किस प्रकार आरम्भ हुआ था-इस बात का) भान न रहे तो वह अवश्य प्रत्यक्ष हो जायगा। मेरा संकल्प सिद्ध हो गया है। उस संकल्प-शक्ति से ही मैंने इस शिला में ब्रह्माण्ड की भावना कर ली है। मेरा ब्रह्माण्ड इस ब्रह्माण्ड की अपेक्षा बृहत्तर है। जितने समय में मैंने वहाँ एक दिन की भावना की थी, उतने समय में इस ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा ने कई युगों की भावना की। अतः वहाँ केवल एक दिन हुआ और यहाँ कई युग बीत गये। वस्तुतः सारा प्रपंच भगवान का संकल्प ही है। जो शक्ति भगवान में है, वही योगियों में भी हो जाती है। वे यदि घट को पट कहें तो उसे पट होना पड़ेगा। ब्रह्मादि का संकल्प भी ऐसा ही है। इसी से उनके संकल्पित पदार्थ उन्हें भी प्रतीत होते हैं और हमें भी। अन्य पुरुषों के संकल्प ऐसे नहीं होते, उन्हें अपने संकल्पों की पूर्वकोटि ज्ञात रहती है; अतः उनके संकल्पित पदार्थ केवल उन्हें ही प्रतीत होते हैं, दूसरों को नहीं।’ इसी से पहले कहा गया है- ‘मनसो ह्यमनीभावे द्वैतं नैवोपलभ्यते’ क्योंकि प्रपंच की प्रतीति मन की चंचलता में ही होती है, उसकी स्थिरता में नहीं। अतः भगवान बुद्धियों से कहते हैं- ‘अरी बुद्धियो! जब तक तुम स्थिर होकर अपने परम प्रेमास्पद परब्रह्म परमात्मा का सुखास्वादन न करोगी तब तक तुम्हारा श्रम निवृत्त न होगा। श्रम की निवृत्ति परमप्रेमास्पद के सुखास्वादन से ही होती है; क्योंकि जिस समय प्राणी प्रेम विह्वल होता है उस समय उसकी इन्द्रियाँ और मन शिथिल पड़ जाते हैं। जिस समय कोई प्रेमी दीर्घकाल के प्रवास के अनन्तर अपनी प्रियतमा से मिलता है और उन दोनों का परमस्पर आलिंगन होता है उस समय उन्हें बाहर-भीतर का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता। यह दशा प्राकृत प्रेमियों की है, फिर परमानन्द-सौख्य-सुधासिन्धु श्रीश्यामसुन्दर का संयोग होने पर उनके दिव्य रूप, दिव्य स्पर्श एवं दिव्य गन्ध का समास्वादन करने पर जो विलक्षण स्थिति होती है, उसका तो कहना ही क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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