भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
इष्टदेव की उपासना
न नमन करता हूँ, न किसी दूसरे की स्तुति करता हूँ, न अन्य को आँख से देखता हूँ, न स्पर्श करता हूँ, न अन्यत्र कहीं जाता हूँ, न बिना हरि के अन्य का गान करता हूँ।’’ इत्यादि श्लोकों के द्वारा अनन्यता का स्वरूप प्रदर्शित किया है। इतना सब मन्थन करने का तात्पर्य यही है कि भगवान श्रीवासुदेव की उपेक्षा करके अन्य देवों का समाश्रयण करना अभिप्रेत नहीं, अपितु वासुदेव-भावना से या भगवान की आराधना-बुद्धि से अन्य देवताओं का भी आदर अवश्य ही करना उचित हैं इसीलिए काशीखण्ड में आगे चलकर लिखा है कि श्रीविष्णु की आज्ञा से ध्रुव ने भगवान श्रीविष्णु के उपास्य श्रीशंकर भगवान की पूजा की। ध्रुव को वरदान आदि देकर भगवान श्रीविष्णु ने उनसे कहा:-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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