भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी से श्रुति कहती है- “यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते यत्कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते।” जिनके श्रोत्र भगवत्कथा श्रवण में संलग्न हैं, जिनके चरण भगवद्धामों की यात्रा करते हैं जिनके हाथ निरन्तर भगवत्सेवा में ही लगे रहते हैं, जिनकी घ्राणेन्द्रिय प्रभु के पादपद्म से संलग्न तुलसिका का ही आघ्राण करती हैं तथा जिनके अंग भगवद्भक्तों के सहवास का अद्भुत आनन्द लूटते हैं उनके लिये यह संसार संसार ही नहीं रहता। देखिये, नारद, शुकदेव, व्यास एवं वसिष्ठादि के लिये भी तो यही संसार है। वे बारम्बार देह धारण करके यहाँ आते हैं। उनके लिये यह आनन्दस्वरूप है और हमारे लिये यही विषम विषाक्त अग्निपूर्ण कटाह हो रहा है। जिनकी बुद्धि ने श्रीकृष्णचन्द्ररूप परमपति की शुश्रूषा की है उनके लिये यह भगवद्रूप हो गया है। इसी से वे प्रभु के लीला विग्रह का आस्वादन करने के लिये सब कुछ जानकर भी थोड़ा-सा भेद स्वीकार करते हैं। शुद्ध परब्रह्म आनन्दरूप है किन्तु उसका सगुण रूप आनन्दकन्द है-वह आनन्द का ही घनीभूत रूप है। जिस प्रकार इक्षु रस मिष्ट है, किन्तु शर्करा और मिश्री में जो माधुरी है वह कुछ और ही है, इसी प्रकार भगवान के दिव्यमंगल विग्रह का सुख विचित्र ही है। उनके कर, चरण, नख, अधर, भूषण, आयुध सभी परम दिव्य हैं; उनके एक-एक अवयव पर कोटि-कोटि कामदेव निछावर किये जा सकते हैं। उनकी उस परमानन्दमयी मूर्ति का सुखास्वादन करने के लिये ही वे नित्यमुक्त महर्षिगण इस लोक में अवतरित होते हैं और स्वरूपतः सर्वथा अभिन्न होने पर भी प्रभु का आनन्द भोगने के लिये भेद स्वीकार करते हैं; क्योंकि बिना भेद के भोग नहीं हो सकता। यही भगवत्लीला का निगूढ़ रहस्य है। ऊपर कहा जा चुका है कि बुद्धियों के प्रति भगवान का कथन है कि तुम संसार की ओर मत जाओ, अपने परमपति परमात्मा का ही अनुसन्धान करो। यहाँ ‘क्रन्दन्ति बाला वत्साश्च’ का तात्पर्य यह है कि जब तक तुम लोग परब्रह्म परमात्मा का अनुसन्धान न करोगी तब तक इन्द्रिय और इन्द्रिय वृत्तिरूप बालक तथा बछड़े क्रन्दन करते रहेंगे; क्योंकि ब्रह्मानुसन्धान न करने पर तो प्रपंच की प्रतीति बनी ही रहेगी। वस्तुतः इस संसार की सत्ता मन की चंचलता रहने तक ही है, उस चंचलता का निरोध होने पर फिर प्रपंच की प्रतीति नहीं होती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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