भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
प्रमाण का प्रामाण्य अज्ञात वस्तु का ज्ञान कराने में ही है। अज्ञान की दो शक्तियाँ हैं- आवरण और विक्षेप। इनमें आवरण के भी दो भेद हैं-असत्त्वापादक और अभानापादक। ये असत्त्वापादक और अभानापादक आवरक किसी स्वतः सत्ता और स्फूर्ति वाली वस्तु का ही आवरण करेंगे। ऐसी वस्तु ब्रह्म ही है। अतः वही अज्ञान का विषय हो सकता है। इसी से संक्षेप शारीरकार का कथन है-
मिथ्या वस्तु की तो अज्ञात सत्ता-स्फूर्ति हुआ ही नहीं करती। इसलिये वह प्रमाण विषय हो ही नहीं सकती। समस्त इन्द्रियों का विषय एकमात्र परब्रह्म ही हो सकता है, अतः इन्हें उस ब्रह्मानन्द-सुधासिन्धु के अमृत का ही पान कराओ। मन एवं समस्त इन्द्रियाँ जब तक विषय चिन्तन करती रहेंगी तब तक दुःख ही पायेंगी। इन्हें क्या करना चाहिये? केवल ब्रह्माभ्यास। ब्रह्माभ्यास का लक्षण इस प्रकार है-
यह बात निश्चित है कि हम जैसा चिन्तन करेंगे वैसे ही बन जायँगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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