भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जिस प्रकार विषम विषाक्त अग्नि के कटाह में पड़ा हुआ कीट तड़पता है उसी प्रकार सांसारिक भोगों में फँसे हुए जीव निरन्तर बेचैन रहते हैं। परन्तु किया क्या जाय, यह उनका स्वभाव ही है; जैसे शूकर को विष्ठा से ही प्रेम होता है उसी प्रकार इन इन्द्रियों की प्रीति विषयों में ही होती है। उस अपनी वासना के कारण जीव दुःख में ही सुख का अनुभव कर रहे हैं। जिस प्रकार दाद खुजलाने से सुख मालूम होता है उसी प्रकार विषयों में सुख जान पड़ता है। इस व्यामोह से निकलो और परब्रह्म परमात्मा की ओर बढ़ो। जिस समय तुम्हारी प्रवृत्ति नामरूपोपाधि निर्मुक्त परब्रह्म में ही होगी उसी समय तुम्हें शान्ति प्राप्त होगी। फिर तो ‘यत्र यत्र मनोयाति तत्र तत्र समाधयः’ इस उक्ति के अनुसार सर्वत्र सुख का ही भान होगा। ‘आनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते’ इस श्रुति के अनुसार यह नाम रूपात्मक जगत आनन्दात्मक परब्रह्म से ही उत्पन्न हुआ है। इसलिये यह आनन्दमय ही है। जिस प्रकार स्वाभाविक सौगन्ध्योपहित चन्दन में मृत्तिका एवं जलादि के योग से अस्वाभाविक दुर्गन्ध की प्रतीति होती है अथवा पित्त बिगड़ जाने के कारण मिश्री कड़वी जान पड़ती है, उसी प्रकार अचिन्त्यानन्त सौख्य सुधासिन्धु ब्रह्म में अज्ञानजनित उपाधि के कारण इस दुःखमय प्रपंच की प्रतीति होती है। अधिष्ठान ब्रह्म का ज्ञान होने पर उसकी निवृत्ति हो जाती है। अतः ‘तान् पाययत दुह्यत’ इन इन्द्रियों को पान कराओ और दुहो। क्या पान कराओ? परब्रह्मामृत; क्योंकि जब बुद्धि ब्रह्माकार रहने लगेगी तो विषय दुःखमय नहीं रहेंगे, वे भी ब्रह्ममय हो जायँगे। अतः इन्द्रियों को उस परमानन्द-सुधासिन्धु में निमज्जित करने के लिये दृश्यमात्र को परब्रह्म-रूप देखो। ऊपर जो पतिव्रता की गाथा कही है उसमें यदि वह पतिव्रता लौकिक साधनों से अपने बालक को बचाने का प्रयत्न करती तो वह सदा के लिये उसकी रक्षा नहीं कर सकती थी। उसे सदा के लिये तो वह तभी सुरक्षित कर सकती थी जबकि अग्नि शीतल हो जाय। इसके लिये तो पतिशुश्रूषण ही एकमात्र साधन था। उस परमधर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करके ही उसने अग्नि का स्वभाव बदल दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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