भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अर्थवाद का आपततः प्रतीयमान अर्थ नहीं लिया जाता। पूर्वमीमांसक तो अर्थवाद का स्वार्थ में तात्पर्य ही नहीं मानते। उत्तर मीमांसकों का विचार दूसरा है। वे अर्थवाद के तीन भेद मानते हैं- भूतवाद, गुणवाद और अनुवाद। जो मानान्तर सिद्ध का अर्थ का प्रतिपादन करता है उसे अनुवाद कहते हैं; जैसे- ‘अग्निर्हिमस्य भेषजम्।’ जो मानान्तर से विरुद्ध अर्थ का प्रतिपादन करता है उसे गुणवाद कहा जाता है; जैसे ‘आदित्यो यूपः’ और जो मानान्तर से अविरुद्ध और मानान्तर से असिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करता है, उसे भूतवाद कहते हैं; जैसे ‘वज्रहस्तः पुरन्दरः।’ प्रस्तुत अर्थवाद गुणवाद है; क्योंकि वह श्रुत्यन्तर से विहित कर्म और उपासना की निन्दा करता है। अर्थात् मानान्तर से विरुद्ध अर्थ का प्रतिपादन करता है। किन्तु यहाँ जो कर्म और उपासना के फल को अन्धन्तम कहा है वह सापेक्ष है। इस प्रसंग में महाभारत की एक कथा का स्मरण होता है। एक ब्राह्मण गायत्री का जप किया करता था। उसकी प्रौढ़ जपनिष्ठा से प्रसन्न होकर गायत्री देवी उसके सम्मुख प्रकट हुईं। देवी ने उस ब्राह्मण देवता को वर दिया कि जापक को जिस नरक की प्राप्ति होती है वह तुम्हें न मिले। जापक को नरक मिलता है-यह बात बड़ी कुतूहलजनक मालूम होती है। परन्तु इसका तात्पर्य दूसरा है। यहाँ ब्रह्मलोक को ही ‘नरक’ कहा गया है; क्योंकि विशुद्ध ब्रह्म की अपेक्षा ब्रह्मलोक निकृष्ट ही है। अतः उसे नरक कहा जाय तो अनुचित न होगा। इसी प्रकार यहाँ जो अदर्शनात्मक तम कहा है वह मोक्षपद की अपेक्षा से ही है। उपासना और भी अधिक अन्धन्तमः की प्राप्ति बतलायी, इसका कारण यह है कि उपासना मानस कृत्य है; सर्वसाधारण के लिये यह भी सुगम नहीं है। भला, जिन लोगों के हस्तपादादि देहावयव भी सुसंयत नहीं है वे उस मानव व्यापार को ठीक-ठीक कैसे निभा सकेंगे? कर्म करने से कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ सुसंयत होती हैं; क्योंकि कर्मकाण्ड में प्रत्येक चेष्टा नियमबद्ध है। खाना, पीना, सोना, बोलना सभी नियमित रूप से ही करना पड़ता है। वैदिक कर्मों का अनुष्ठान करते समय जिस कर्म के लिये जैसी विधि है उससे तनिक भी इधर-उधर होने पर प्रायश्चित करना पड़ता है। इसलिये कर्मानुष्ठान से इन्द्रियों की प्रवृत्ति सर्वथा सुसंयत हो जाती है। इन्द्रियों के संयत होने पर उपासना में प्रवृत्त होना सम्भव है इसी से उपासक को कर्म में भी प्रवृत्त करने के लिये श्रुति केवल उपासना में भय प्रदर्शित करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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