भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
प्रभु का प्राकट्य बहुत जल्दी-जल्दी हुआ करता है। यहाँ अध्यात्म-प्रेमियों को तनिक ध्यान देना चाहिये। देखिये घटाकार वृत्ति की निवृत्ति हुई और अभी पटाकार वृत्ति का उदय नहीं हुआ। इस सन्धि में प्रभु की झाँकी होती है। अज्ञान और उसके कार्य प्रभु के आवरक हैं। विषय को प्रकाशित करने वाली वृत्ति का नाम प्रमाण है, विषय को प्रमेय कहते हैं और प्रमाण के आश्रयभूत चेतन का नाम प्रमाता है। इनमें एक के न रहने पर तीनों ही नहीं रहते। किन्तु इन तीनों का और इन तीनों के अभाव का प्रकाशक आत्मा है। इसी भाव को यह श्लोक व्यक्त करता है-
अतः जिस समय प्रमाता एक वृत्ति उत्पादन करके शान्त होता है उसके पश्चात् दूसरी वृत्ति उत्पन्न करने से पूर्व वह विश्राम लेता है। उस विश्रान्ति के समय ही उसके शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि होती है। इसलिये प्रति पल सावधान रहो। निमेषोन्मेष करना भी भूल जाओ। सदा निर्निमेष दृष्टि से प्रभु की बाट निहारते रहो। हमें प्रभु का निराकरण नहीं करना चाहिये और प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिये के वे हमारा निराकरण न करें। इस प्रकार सारे लौकिक-वैदिक कर्मों को प्रभु से अभिन्न समझना ही प्रभु की परमोत्कृष्ट भक्ति है। यह प्रभु का अनादर नहीं है। किन्तु दुराचारियों ने ब्रह्मज्ञान पर कलंक लगा दिया। जो बात सर्वोच्च कोटि की थी उसे वे श्रीगणेश में ही करने लगे। जिसने भगवतत्त्व को प्राप्त कर लिया है वह यदि वैदिक-स्मार्त्त कर्मों को छोड़ता है तो ठीक ही है, किन्तु जिसने अभी प्रभु की ओर पदार्पण भी नहीं किया वह यदि अपने कर्तव्य कर्मों को तिलांजलि देता है तो उसका कल्याण अनन्त कोटि जन्मों में भी नहीं होगा। जिसे सुधा-समुद्र की प्राप्ति हो गयी हो वह यदि वापी, कूप, तड़ागादि की अवहेलना करेगा तो प्यासा मर जायगा। अतः पहले अपने को भगवान में समर्पित करो; पहले सबको ब्रह्मरूप देखो, पीछे अपने को ब्रह्मरूप देखना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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