भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
परिणाम में तुम भी उन्हीं में समर्पित हो जाओगे। भगवान कहते हैं- “निवसिष्यसि मय्येव अतः ऊर्ध्व न संशयः।” यदि घटाकाश अपने को महाकाश से पृथक समझता है तो जिस देश में वह अपनी सत्ता मानेगा उस देश में उसे महाकाश की सत्ता अस्वीकार करनी पड़ेगी। इस प्रकार वह महाकाश की पूर्णता को खण्डित कर देगा। इसी से घटाकाश कहता है, ‘मैं अपनी सत्ता रखकर अपने प्रभु की अपूर्णता नहीं करूँगा। मैं अपने को भी उन्हें ही समर्पित कर दूँगा।’ यही अद्वैतवादियों का सिद्धान्त है। वे प्रभु को आत्मसमर्पण भी कर देते हैं। यही उनकी अद्भुत भक्ति है। वे अपने प्रियतम को अपने आप को भी दे डालते हैं, क्योंकि आत्मा ही सबसे बढ़कर प्रिय है; इसी के लिये प्रत्येक वस्तु प्रिय हुआ करती है- “आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रिय भवति।” अतः यदि तुम अपने परम प्रेमास्पद को समर्पण न करके केवल स्त्री, धन और मन आदि ही प्रभु को अर्पण करते हो तो तुम सच्चे प्रेमी नहीं कहे जा सकते। अतः आत्मसमर्पण रूप अद्वैत दर्शन ही सच्ची पूजा है और यही उत्कृष्टतम भक्ति है। हाँ, मूर्ख पुरुषों के लिये यह सिद्धान्त अवश्य बहुत भयावह है। इस सिद्धान्त के ब्याज से वे देह को भी ब्रह्म मान सकते हैं। परन्तु वस्तुतः यह सिद्धान्त भक्ति का घातक नहीं है। यह तो उसकी चरमावस्था है। किन्हीं महानुभावों ने कहा है कि-‘पहले उपासना को भावना करते-करते ऊपर-नीचे सर्वत्र ब्रह्म ही दिखाई देता है। अतः पहले ‘ब्रह्मैवाधस्ताद्ब्रह्मैवोपरिष्टात्’ यह श्रुति ही चरितार्थ होती है। पीछे एक संचारी भाव विशेष का अभ्युत्थान होने पर ऐसा होता है कि जिससे वह अपने को ही प्रियतम रूप से देखने लगता है। उसी अवस्था का प्रतिपादन ‘अहमेवाधस्ताबहमेवोपरिष्टात्’ इस श्रुति ने किया है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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