भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः ऐसी अवस्था में वेद अप्रामाणिक हो जाता है। इसलिये अपने प्रामाण्य के लिये वेद स्वतः ही अपना अभाव प्रतिपादन करते हैं- “अन्न वेदा अवेदा ब्राह्मणा अब्राह्मणाः पुल्कसा अपुल्कसाः।” कार्य जब तक अपने कारण से भिन्न रहता है तभी तक उसकी पृथक् उपलब्धि होती है। कारण से अभिन्न होने पर उसकी पृथक् प्रतीति नहीं होती। वेद भी ब्रह्म के कार्य हैं-‘अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेव ऋग्वेदः’ अतः वस्तुत वे परब्रह्म से व्यतिरिक्त नहीं हैं। घटादि तभी तक उपलब्ध होते हैं जब तक वे अपने कारण मृत्तिका में नहीं मिलते। उसमें मिल जाने पर उनकी पृथक् प्रतीति नहीं होती। अतः वेद को ब्रह्म से व्यतिरिक्त न मानना उनका तिरस्कार नहीं है; यह तो उसका सम्मान ही है। जो पुरुष वेद को ब्रह्म से भिन्न मानता है उस पर तो वेद कुपित होते हैं और उसे स्वार्थ से भ्रष्ट कर देते हैं। श्रुति स्वयं कहती है-
क्योंकि भाई! ब्रह्म से वियोग होना किसी को इष्ट नहीं है। तुम भी तो परब्रह्म से वियुक्त होने के कारण ही तड़प रहे हो। वेदों को भी भगवान् का वियोग कैसे सह्य हो सकता है? फिर तुम उन्हें भगवान् से व्यतिरिक्त क्यों समझते हो? तुम यज्ञ-यागादि कर्मों को भगवान् से भिन्न क्यों मानते हो? यदि तुम एक अणु को भी ब्रह्म से पृथक् समझोगे तो वह अवश्य तुम्हारे लिये भय उपस्थित कर देगा। प्रेमी तो अपना भी पृथक् अस्तित्व नहीं रखना चाहता।
यदि हम अपनी पृथक् सत्ता रखेंगे तो ब्रह्म में वस्तु-परिच्छेद आ जायगा; तथा जिस देश में हम रहेंगे उसमें ब्रह्म नहीं रहेगा। इसलिये ब्रह्म में देश परिच्छेद भी हो जायगा। इसी से भावुक पुरुष अपनी सत्ता प्रभु को ही समर्पित कर देते हैं; वे प्रभु से पृथक् रहकर उनके पूर्णत्व को खण्डित करना नहीं चाहते। अतः पहले अपने धन-धान्यादि प्रभु को समर्पण करो, फिर देह समर्पित कर दो और तदनन्तर मन, बुद्धि और प्राण भी प्रभु को ही अर्पण कर दो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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