भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार अग्नि और वायु के विफल मनोरथ होकर लौट आने पर स्वयं देवराज इन्द्र उस यक्ष का परिचय प्राप्त करने के लिये चले। देवराज को देखते ही यक्ष भगवान अन्तर्धान हो गये। इससे इन्द्र को बड़ा परिताप हुआ। वे सोचने लगे, “अहो! मुझे सन्निधान से उनके दर्शन और सम्भाषण का भी सौभाग्य प्राप्त न हो सका।” जिस समय जीव को भगवद्विरह के कारण परिताप होता है उसी समय उसे भगवत्साक्षात्कार की योग्यता प्राप्त होती है। वह क्षण बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है जिसमें प्राणी अपने प्रियतम की विरह वेदना से तड़पने लगता है और उसका रोम-रोम भगवद्दर्शन के लिये उत्कण्ठित हो उठता है। देखिये, जिस समय भगवान के साथ व्रजांगनाओं का संयोग था उस समय उनकी उपासना उतनी प्रबल नहीं थी; किन्तु जब उन्हें भगवान का वियोग हुआ तब उनकी लगन इतनी बढ़ी कि उस विरहाग्नि ने उन्हें केवल इसीलिये नहीं जलाया क्योंकि उनके हृदय में भगवान की प्रेममय मूर्ति विराजमान थी। उस आनन्द-सुधासिन्धु के कारण ही उनकी रक्षा हुई। इसी भाव का वर्णन करते हुए श्रीवल्लभाचार्य जी ने यह श्रुति कही है- “कोऽह्येवान्यात्कः प्राण्याद्यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्।” अर्थात् यदि सहृदय प्रेमियों के अन्तःकरणों में प्रेमानन्दरूप सुधा न होती तो अपने प्रियतम के वियोग में उनमें से कौन चेष्टा करता और कौन प्राण धारण करता? वे तो तत्काल उस विरनाहल में भस्म हो जाते। अतः यदि भगवान के वियोग का सन्ताप न हुआ तो यह जीवन व्यर्थ है; भगवान वाल्मीकि कहते हैं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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