भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
रूप की निवृत्ति होने पर तो सारा ही विक्षेप निवृत्त हो जाता है। अब केवल स्पर्श और शब्द रह जाते हैं, स्पर्श की निवृत्ति होने पर केवल शब्द ही शेष रहता है। इससे आगे बढ़कर शब्द को देखने वाले मन में ही स्थित हो जाओ। फिर तटस्थ वृत्ति से मन की गति को देखो और तत्पश्चात् उसे देखने को देखो। इस प्रकार बुद्धि तुम्हारा दृश्य हो जायगी। बुद्धि का द्रष्टा अहंकार है। इससे आगे अहंकार भी भास्य कोटि में आ जाना चाहिये। तत्पश्चात् उसकी भी प्रतीति नहीं होगी और केवल सर्वावभासक चिदात्मा ही रह जायगा। इस प्रकार बुद्धि सबके अधिष्ठानभूत केवल आत्मा में ही स्थित हो जाती है; उस समय उसके भास्य शब्द-स्पर्शादि प्रपंच में से कुछ भी प्रतीत नहीं होता। अब हम प्रकृत विषय पर आते हैं। भगवान का उपदेश है- ‘शुश्रूषध्वं पतीन्’ अर्थात् जो सर्वावभासक चिदात्मा जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में प्रतीत होने वाले द्वैत का तथा सुषुप्ति में अनुभव हुए अज्ञान का साक्षी है, तुम उस परम पति का ही आश्रय लो। अतः तुम नाम रूपात्मक प्रपंच की ओर मत जाओ, बल्कि उसके अवभासक सर्वसाक्षी परमात्मा का चिन्तन करो। यदि कहो कि उसमें तो हमारी गति नहीं है, हम किस प्रकार ऐसा करें तो उसके लिये ‘शुश्रूषध्वं सतीः’। ‘सती’ शब्द का अर्थ हम पहले ही कह चुके हैं। तात्पर्य यह है कि इसके लिये तुम ब्रह्मविद्या रूपिणी भगवती महामाया की उपासना करो। देखो, गोपियों को भी श्रीकात्यायिनी देवी की उपासना करने से ही परब्रह्मस्वरूप भगवान कृष्ण की प्राप्ति हुई थी। ऐसी ही एक गाथा उपनिषदों में आती है। जिस समय देवासुर-संग्राम में परब्रह्म परमात्मा के प्रसाद से देवताओं को विजय प्राप्त हुई तो वे भगवान को भूल गये और उस विजय को अपने ही पुरुषार्थ का फल मानने लगे। उस समय परम दयालु भगवान अपने मोहग्रस्त अनुचरों का व्यामोह दूर करने के लिये एक विचित्र रूप् से उनके सामने प्रकट हुए। भगवान के उस विचित्र अनन्त प्रकाशमय विग्रह को देखकर देवताओं को बड़ा कुतूहल हुआ और उन्हें यह जानने के लिये बड़ी उत्सुकता हुई कि यह यक्ष कौन है? यह बात जानने के लिये सबसे पहले अग्निदेव गये। भगवान ने उनसे पूछा, ‘तुम कौन हो?’ अग्नि ने बड़े गर्व से कहा, ‘मैं अग्नि हूँ, लोग मुझे जातवेदा कहते हैं।’ भगवान ने कहा-‘तुम क्या कर सकते हो?’ अग्निदेव ने कहा-‘संसार में जितने पदार्थ हैं मैं उन सभी को जला सकता हूँ।’तब यक्ष भगवान ने उनके आगे एक तृण रखकर कहा, ‘भला इसे तो जलाओ।’ अग्निदेव अपना सारा पुरुषार्थ लगाकर हार गये किन्तु वे उसे जलाने में समर्थ न हुए और इस प्रकार मान-मर्दन हो जाने से चुपचाप लौट आये। उनके पीछे वायु देवता गये। किन्तु उनकी भी वही गति हुई। वे भी एक क्षुद्र तृण मात्र को उड़ाने में समर्थ न हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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