भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
एक बात और ध्यान देने की है, प्रेम की अभिृद्धि प्रेमास्पद में ही हुआ करती है। जो प्रेम करने योग्य नहीं होता उसका दीर्घकाल तक चिन्तन किया जाय तब भी उसमें प्रेम नहीं हो सकता। व्याघ्र और सर्पादि का जन्मभर चिन्तन करते रहो, उनमें प्रेम कभी नहीं होगा। उनमें तो द्वेष की ही वृद्धि होगी, प्रेम तो प्रेमास्पद में ही हो सकता है। चिन्तन से केवल योग्यता मिलती है। प्रेमास्पद का चिन्तन करने से प्रेम बढ़ता है और द्वेष का चिन्तन करने से द्वेष की वृद्धि होती है। विषय भी सुख के साधन हैं, इसलिये उनमें भी प्रेम हो जाया करता है। प्रेम दो ही में होता है-सुख में तथा सुख के साधन में। सुख के साधन में जो प्रेम होता है वह स्थायीन नहीं होता, जब तक वह पदार्थ सुखप्रद रहता है तभी तक उसमें प्रेम रहता है। देखो, जल तभी तक प्रिय लगता है जब तक हमें तृषा रहती है। परन्तु सुख तो सदा ही प्रेमास्पद है। अतः निरतिशय प्रेम सुख में ही हो सकता है। केवल सुखस्वरूप तो एकमात्र श्रीभगवान ही हैं, इसलिये हमें उन्हीं में प्रेम करना चाहिये। प्रेम के इन दो भेदों को शास्त्र में सोपाधिक और निरुपाधिक प्रेम भी कहा है। प्रेम के विषय में यह नियम है कि अत्यन्त नीच परिस्थिति में रहने वाला पुरुष भी उसी को अधिकाधिक प्रेमास्पद समझता है जो जितना उसका अधिक आन्तरिक होता है। जो देहात्मवादी हैं, जिन्हें विविध प्रकार के सौख्योपभोग ही इष्ट हैं उनका प्रेम भी अधिकाधिक अन्तरंग में ही होता है। देखिये, पुत्रादि की अपेक्षा शरीर अधिक प्रिय है, शरीर की अपेक्षा मन अधिक प्रिय है; इसी से मन उद्विग्न होने पर उसे शान्त करने के लिये आत्मघात तक कर लेते हैं। मन भी जब चंचलता के कारण अशान्ति का हेतु दिखाई देने लगता है तो उसके भी नाश का प्रयत्न किया जाता है। यहाँ तक कि अन्त में अभ्यासी लोग बुद्धि का भी निरोध करते हैं। इससे ज्ञात होता है कि जो बुद्धि से लेकर स्थूल प्रपंच-पर्यन्त सम्पूर्ण दृश्य वर्ग का प्रकाशक है वह सर्वान्तरतम आत्मा ही निरुपाधिक परमप्रेम का आस्पद है। हमारा परमाराध्य प्रभु बहिरंग नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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