भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यदि कहा जाय कि कहीं-कहीं वेदों की उत्पत्ति भी तो सुनी जाती है; जैसे- ‘अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेव ऋग्वेदो यजुर्वेदः’ इत्यादि वाक्यों से ज्ञात होता है। यह कथन ठीक है किन्तु इसके साथ ही ‘वाचा विरूप नित्यया’, ‘अनादिनिधना नित्या वागुत्स्रष्टा स्वयंभुवा’ आदि वाक्यों से उनका नित्यत्व भी प्रमाणित होता है। अतः इन दोनों प्रकार के वाक्यों की एकवाक्यता होनी चाहिये। इनका अभिप्राय केवल यही है कि पूर्व कल्प की आनुपूर्वी के समान इस कल्प के आरम्भ में भी भगवान स्वयम्भू से उसी आनुपूर्वी के अनुस्मरणपूर्वक वेदों का आविर्भाव हुआ। इसी से भगवान कहते हैं कि तुम अपने समुदाय में जाओ, क्योंकि मीमांसक भी परब्रह्म परमात्मा का खण्डन नहीं करते। वे केवल न्याय प्रतिपादित अनुमान सिद्ध सर्वज्ञ ईश्वर को स्वीकार नहीं करते, अपौरुषेय वेदप्रतिपादित सर्वज्ञ ईश्वर का खण्डन वे कभी नहीं करते। कर्मफल देने वाला या कर्म में देवतादिरूप से ईश्वर उन्हें भी मान्य है ही परन्तु तुम स्वतन्त्र विधि निपेक्ष अद्वैत ब्रह्म में मत आसक्त हो। अतः तुम साध्य साधनमय प्रपंच का ही प्रतिपादन करो, निर्विशेष परब्रह्म का प्रतिपादन करने का प्रयत्न मत करो। इसमें ‘मा चिरम्’- देरी भी नहीं होगी। इसलिये ‘शुश्रूषध्वं पतीन्’-अपने-अपने प्रतिपाद्य देवताओं का ही प्रतिपादन करो। यह सुनकर मानों श्रुतियों को यह सन्देह हुआ कि यदि हम अनन्त परब्रह्म का ही प्रतिपादन करेंगी तो अन्य देवता उसी में आ जायँगे, क्योंकि वे भी तो ब्रह्म से अभिन्न ही हैं। यह नियम है कि कार्यगत सत्ता कारण में ही रहती है, अतः समस्त कार्य का पर्यवसान कारण में ही होता है। जिस प्रकार मृत्तिका का प्रतिपादन कर देने पर घटादि का भी प्रतिपादन हो ही जाता है उसी प्रकार सबके अधिष्ठानभूत परब्रह्म का प्रतिपादन करने पर अवान्तर देवताओं का प्रतिपादन भी हो ही जाता है। वास्तव में तो सत्तामात्र शुद्ध ब्रह्म शब्दों का वाच्य है; क्योंकि यह निखिल प्रपंच उसी से तो उत्पन्न हुआ है- ‘तस्मावेतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतआकाशाद्वायुः।’ अतः यह ब्रह्मरूप ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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