भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
श्रुतियों का जो शब्दार्थ होता है वह आपाततः ही प्रतीत हो जाता है- ‘औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः’ इस वाक्य के अनुसार शब्द और अर्थ का सम्बन्ध स्वाभाविक है। अतः जिन इन्द्र, वरुण, वायु आदि देवताओं का श्रुतियाँ आपाततः प्रतिपादन कर रही हैं वे ही श्रुतियों के पति हैं, उन्हीं की तुम सेवा करो; परपुरुषरूप निर्विशेष ब्रह्म का आश्रय मत लो। यहाँ जो ‘सतीः’ शब्द में द्वितीया है वह प्रथमा के अर्थ में है। इसका तात्पर्य यह है कि ‘पतीन् शुश्रूषध्वं यस्माद्यूयं सत्यः’- तुम पतियों (अपने प्रतिपाद्य देवताओं) की सेवा करो क्योंकि तुम सती हो। और यदि ‘सतीः’ शब्द को द्वितीयान्त ही माना जाय तो इस वाक्य का अर्थ होगा- ‘सतियों की सेवा करो’। सतियाँ वे श्रुतियाँ हैं जो अपने प्रतिपाद्य देवताओं का ही प्रतिपादन करती हैं, परब्रह्म तक नहीं दौड़तीं। तुम उन्हीं का अनुगमन करो; क्योंकि मीमांसकों का जबरदस्त आग्रह है कि ‘आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम्’ अर्थात् ‘वेद क्रियार्थ है, इसलिये जो वाक्य क्रियार्थ नहीं है उनका कोई प्रयोजन नहीं है।’ मीमांसकों का मत है कि विधि-निषेधरूप से क्रियापरक होने पर ही वाक्य की सार्थकता है। विधि-वाक्य इष्ट प्राप्ति का उपदेश करने के कारण सार्थक है; जैसे- ‘ज्वरितः सन् पथ्यमश्नीयात्’ (ज्वर ग्रस्त होने पर पथ्य भोजन करे) इसी प्रकार ‘अग्निहोत्रं जुहुयात्’, ‘स्वर्गकामो यजेत्’ आदि वाक्यों की अर्थवत्ता है। तथा निषेधवाक्य अनिष्ट-परिहार का उपाय उपदेश करने के कारण सार्थक है, जैसे- ‘सर्पाय अंगुलि न दद्यात्’ (सर्प को अंगुली मत पकड़ाओ)। इसी प्रकार ‘ब्राह्मणो न हन्तव्यः’ आदि वाक्य समझने चाहिये। परन्तु ‘यह राजा जाता है’, ‘पृथ्वी सात द्वीपोंवाली है’ इत्यादि सिद्धवस्तु-प्रतिपादक वाक्य और ‘वायुर्पै क्षेपिष्ठा देवता’ (वायु शीघ्रगामी देवता है) इत्यादि अर्थवाद किसी क्रिया में उपयोगी न होने के कारण व्यर्थ हैं। अब यहाँ सन्देह किया जा सकता है कि अर्थवाद को सार्थक न मानने पर तो उसका शास्त्रत्व ही सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि ‘शिश्यते हितमुपदिश्यतेऽनेन इति शास्त्रम्’ इस लक्षण के अनुसार शास्त्र उसी को कहते हैं जो हित का उपदेश करता है; जिस उक्ति का कोई प्रयोजन नहीं होता उसे शास्त्र नहीं कहा जा सकता, वह तो उन्मत्तप्रलापवत् उपेक्षणीय ही होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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