भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी से भगवान कहते हैं- ‘तान् पाययत’ (उन्हें पिलाओ) क्या पिलाओ? सोम। तात्पर्य यह है कि जिन-जिन देवताओं के लिये जो-जो द्रव्य विहित है उन-उन द्रव्यों का निक्षेप करके उन्हें सन्तुष्ट करो। इस प्रकार उन्हें पिलाकर फिर उन्हीं से ‘दुह्यत’-अपना अभीष्ट फल दुहो। श्रीगीता जी में भगवान अर्जुन से कहते हैं-
इस प्रकार परस्पर एक-दूसरे को प्रसन्न रखने से ही तुम परम श्रेय की प्राप्ति कर सकोगे। यहाँ परम श्रेय से परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति समझनी चाहिये, जिससे बढ़कर कोई और लाभ नहीं है- ‘यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।'; अतः, भगवान कहते हैं- यदि तुम मेरी प्राप्ति करना चाहते हो तो देवताओं के लिये विहित द्रव्य का निक्षेप करके उनका आप्यायन करो, क्योंकि यदि देवताओं के आप्यायन के लिये तुम यज्ञ-दानादि में लग जाओगे तो तुम्हारी पाशविक प्रवृत्तियाँ छूट जायँगी। उनके छूट जाने से तुम्हारा अन्तःकरण शुद्ध होगा और फिर शम-दमादि की प्राप्ति होने पर श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा तुम भगवान को प्राप्त कर लोगे। इस प्रकार देवताओं का आप्यायन और उनसे अपने अभिमत फल का दोहन करते हुए ही तुम सत्पुरुषों का आश्रय लो। यदि उनका आप्यायन न करते हुए तुम सत्पुरुषों का सेवन करोगे तो वहाँ भी विघ्न हो जायगा। इसी से गुरु-शिष्यों में विद्वेष होता देखा गया है। शान्ति-पाठ में कहा है- “सह नाववनु सह नौ भुनक्तु सह वीर्य करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज