भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
परन्तु देवताओं का यह असुरत्व सापेक्ष है। जो लोग जगन्मोहिनी माया के अधिकार को पार कर गये हैं, जिनका बुद्ध्यादि में आत्मत्वाभिनिवेश सर्वथा गलित हो गया है और जिन्हें निखिल प्रंपच अपने स्वरूपभूत चिदाकाश में प्रतीत होते हुए तलमालिन्य के समान सर्वथा असत् अनुभव होता है, उन तत्त्वनिष्ठ जीवन्मुक्तों की अपेक्षा से ही वे ‘असुर’ हैं। अन्य मनुष्यों एवं असरों की अपेक्षा तो वे ‘सुर’ ही हैं। वस्तुतः सारा विवाद व्यष्टि-अभिमान में ही है। व्यष्टि-अभिमान के कारण ही जीव अपने को पण्डित, बुद्धिमान्, ऐश्वर्यशाली, सुखी, दुःखी अथवा अशक्त समझता है। यदि इस परिच्छिन्नत्वाभिमान को छोड़कर समष्टि में आत्मबुद्धि हो जाय तो फिर कोई विवाद नहीं रहता। आज हम थोड़ी-सी विद्या का अभिमान करते हैं; किन्तु उस समय तो ‘अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितये तद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदः’ इत्यादि श्रुति के अनुसार वेद भी हमारे ही निःश्वास मात्र रह जाते हैं; विद्वान्-अविद्वान्, धर्मात्मा-पापी, सुखी-दुःखी-सब हमारे ही स्वरूप हो जाते हैं और सारा विश्व-प्रपंच हमारा ही भ्रुकुटि-विलास हो जाता है। आज हम थोड़े से आदमियों को अपना बन्धु कहते हैं तथा अन्य पुरुषों के प्रति हमारा द्वेष या औदासीन्य है, परन्तु जहाँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ सारा संसार हमारा परिवार है वहाँ सब अपने ही हो जाते हैं। फिर विरोध के लिये कहीं स्थान नहीं रहता। अतः परिच्छिन्नत्वाभिनिवेश ही सारे अनर्थ का मूल है। इसकी निवृत्ति होते ही सम्पूर्ण अनर्थों का मूलोच्छेदन हो जाता है। फिर उसके सारे दोष निवृत्त हो जाते हैं। किन्तु प्राणी उल्टा समझता है। इसी से कहा है- ‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।’ देवता लोग इन्द्रियों के अधिष्ठाता हैं। वे इन्द्रियद्वार में आसन जमाये बैठे हैं। यदि तुम उन्हें सन्तुष्ट न रखोगे तो विषयरूप शत्रुओं का आक्रमण होने पर वे उन्हें तुम्हारे अन्तःकरण में प्रवेश करने से नहीं रोकेंगे। फिर तुम्हारी विषय-विचलित बुद्धि भगवान में नहीं लग सकेगी; और तुम भगवन्मार्ग से च्युत हो जाओगे। अतः यदि तुम विषय-वात के विक्षेप से बचकर अपने चित्त को परमानन्दघन श्रीभगवान में समाहित करना चाहते हो तो इन द्वारपालों को सन्तुष्ट करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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