भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इधर ‘क्रन्दन्ति बाला वत्साश्च तान्पाययत दुह्यत’ इस वाक्य से अन्य जीवरूप स्त्रियों के लिये भगवान का यह उपदेश है कि जब तुम मेरी ओर आने लगते हो तो ये अज्ञानी इन्द्रियाधिष्ठाता देवगण अपने पशु को अपने अधिकार से बाहर जाता देखकर ‘क्रन्दन्ति’ चिल्लाने लगते हैं। ये विघ्न करने में समर्थ हैं इसलिये उस साधक के मार्ग में तरह-तरह के विघ्न उपस्थित कर देते हैं। श्रीमद्भागवत में कहा है- ‘त्वां सेवतां सुरकृता बहवोऽन्तरायाः स्वौको विलङ्घ्य व्रजतां परमं पदं ते।’ देवता लोग नहीं चाहते कि यह प्राणी उनके पंजे से निकलकर भगवद्धाम में प्रवेश करे। श्रुति भगवती कहती है ‘नैतद्देवानां प्रियं यदैतन्मनुष्या विद्युः’ अतः ऐसी परिस्थिति होने पर ये बालक और वत्सरूप देवगण क्रन्दन करने लगते हैं। बाल अज्ञ को कहते हैं। देवता लोग भोगप्रधान हैं, अभोक्ता आत्मतत्त्व में उनकी गति नहीं है इसलिये वे ‘बाल’ हैं तथा ऐसी पाशविंक प्रवृत्ति के कारण ही उन्हें ‘वत्साः’ कहा गया है। देवताओं को ‘असुर’ भी कहा गया है- ‘असुर्या नाम ते लोकाः अन्धेन तमसावृताः।’ ‘असु’ शब्द का अर्थ प्राण है; ‘असुषु रमन्त इति असुराः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार देवताओें को असुर कहा गया है, क्योंकि उनकी प्रवृत्ति प्राणादि अनात्मा के पोषण में ही है। जिस समय देवासुर-संग्राम में देवताओं को विजय प्राप्त हुई तो वे भगवान को भूलकर अभिमानवश उसे अपना ही पुरुषार्थ समझने लगे। वे इस बात को भूल गये कि हमारे देह, इन्द्रिय एवं अन्तःकरण आदि सभी जड़ हैं। सर्वान्तर्यामी श्रीहरि की प्रेरणा के बिना उनमें कुछ भी गति नहीं हो सकती।
इस प्रकार देवताओं को मोहवश असुरभाव को प्राप्त होते देखकर भगवान ने उनका मानमर्दन किया और तब उनकी आँखे खुलीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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