भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यहाँ व्रजांगनाओं के लिये ‘सतीः’ शब्द से क्या विवक्षित होगा? उनके लिये जो भिन्न यूथेश्वरियाँ हैं वे ही सती हैं। उनकी शुश्रूषा करने से ही वे अचिन्त्यानन्द-सुधासिन्धु भगवान के सौन्दर्य एवं माधुर्य रस का समास्वादन कर सकेंगी, क्योंकि वे यूथेश्वरियाँ भगवान को स्वाधीन करना जानती हैं। भगवान का यह उपदेश पहले भी है कि यहाँ जो आह्लादिनी शक्तिस्वरूपा श्रीरासेश्वरी हैं उनके कृपा-कटाक्ष से ही यूथेश्वरी व्रजबालाओं को भगवान को स्वाधीन करने का सामर्थ्य प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार अन्य गोपांगनाओं को उन यूथेश्वरियों की सेवा करने से ही उसकी प्राप्ति हो सकती है। अतः उन्हें उन्हीं का आश्रय लेना चाहिये। किन्तु इसके लिये व्रज में जाने की क्या आवश्यता थी? इसका कारण बतलाते हैं- “क्रन्दन्ति बाला वत्साश्च तान्पाययत दुह्यत।” यह ऐसी ही बात है जैसे ‘मामनुस्मर युद्ध्य च।’ इधर अपनी प्राप्ति के लिये भगवान उन्हें यूथेश्वरियों की सेवा करने का आदेश देते हैं और उधर इसके साथ ही बालकों को दुग्ध-पान कराने और गो दोहन करने की भी आज्ञा दे रहे हैं। इससे सर्वसाधारण के लिये भगवान का यही मत प्रतीत होता है कि उन्हें निरन्तर भगवत्स्मरण करते हुए अपने लौकिक और वैदिक कर्तव्यों का भी यथावत् पालन करते रहना चाहिये। स्त्रियों के लिये बालकों को दुग्धपान कराना आदि गृहकृत्य धर्म ही है। जिस प्रकार स्त्रियों के लिये युद्ध और वैश्यों के लिये व्यापार कर्तव्य है उसी प्रकार स्त्रियों को सब प्रकार के गृहकृत्यों को सुचारू रूप से सम्पन्न करते रहना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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