भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
भगवान का तो यह कथन है कि-
किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिये कि इस प्रकार का गुणहीन ब्राह्मण स्वयं भी कल्याण का पात्र हो सकता है। उसे स्वयं तो नरक ही भोगना पडे़ेगा। उसकी अपेक्षा तो स्वधर्मनिष्ठ शूद्र ही सद्गति होनी अधिक सम्भव है। इसी भाव को लक्ष्य में रखकर श्रीमद्भागवत में कहा है- ‘विप्राद्द्विषड्गुणयुतादर विन्दनाभपादारविन्दविमुखाच्छ्वपचं वरिष्ठम्’मन्ये। इस प्रकार श्रीमद्भागवत में कहीं तो गुणहीन ब्राह्मण को भी सर्वथा पूजनीय बतलाया गया है और कहीं भगवद्भक्तिहीन द्वादश गुण-विशिष्ट ब्राह्मण की अपेक्षा भगवच्चरणानुरागी श्वपच की उत्कृष्टता दिखलायी गयी है। आजकल ब्राह्मण लोग तो प्रशंसा-परक वाक्यों को लेकर अपनी पूजनीयता का दावा करते हैं और अब्राह्मण लोग निन्दापरक वाक्यों को लेकर उन्हें नीचा दिखाने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु बात बिल्कुल उल्टी है। वस्तुतः ब्राह्मणों को तो यह चाहिये कि अपने ब्राह्मणत्व का अभिमान छोड़कर निन्दापरक वाक्यों के अभिप्रायानुसार भगवद्भक्ति और शास्त्रानुमोदित आचरण को ग्रहण करें तथा अब्राह्मणों को यह उचित है कि ब्राह्मणों के गुणदोष की ओर न देखकर ब्राह्मणमात्र में श्रद्धा रखें; क्योंकि शास्त्र में जहाँ आचारहीन ब्राह्मण की निन्दा की गयी है वह उनके कल्याण की दृष्टि से है और जहाँ उनकी प्रशंसा की गयी है वह ब्राह्मणेतर वर्णों की ब्राह्मणमात्र के प्रति श्रद्धा परिपक्व करने के लिये है। संसार में शास्त्रज्ञ होना सरल है, परन्तु अपने परम प्रेमास्पद प्रभु को स्वानुकूल कर लेना परम दुर्लभ है। किन्तु भूषण यही है। पत्नी बड़ी रूपवती हो और तरह-तरह के वस्त्रालंकारों से सुसज्जिता हो, परन्तु यह उसका भूषण नहीं है। उसकी वास्तविक शोभा तो इसी में है कि वह अपने प्राणाधार प्रियतम को अपने अनुकूल बना ले। इसी प्रकार शास्त्रज्ञों का भूषण भी यही है कि वे परम प्रभु श्रीपरमात्मा को अपने अनुकूल कर लें। जहाँ भगवान रहते हैं वहीं सारे गुण रहते हैं; अतः यदि भगवान प्रसन्न हो गये तो मानों सर्वगुणसम्पन्नता प्राप्त हो गयी। इसी से ‘पतीन् शुश्रूषध्वं’ ऐसा कहा है। और पति-शुश्रूषा का प्रकार समझने के लिये ‘शुश्रूषध्वं सतीः’ यह कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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