भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जिसके हाथ में दीपक है वह स्वयं भले ही अँधेरे में रहे परन्तु दूसरों को तो प्रकाश प्रदान कर ही सकता है। इसी प्रकार एक विद्वान भी, जो सब प्रकार के अधिकारियों के लिये तदनुकूल साधनों का ज्ञान रखता है, यदि स्वयं आचरण न भी करते तो भी दूसरों को तो ठीक-ठीक उपदेश कर ही सकता है। ऐसी गाथा भी है कि कहीं कथा होती थी। उसे सुन-सुनकर श्रोता तो कितने ही मुक्त हो गये परन्तु पण्डित जी कथा ही बाँचते रह गये। क्योंकि जब तक शास्त्रानुमोदित आचरण न होगा तब तक केवल शास्त्रज्ञान से कोई कल्याण का पात्र नहीं हो सकता। ‘आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः’ मरणकाल में सारे शास्त्र इसी प्रकार छोड़कर चले जाते हैं जैसे पत्रहीन वृक्ष को पक्षिगण। अतः आत्मकल्याण में आचरण की ही प्रधानता है। इसी से कहा है-
अतः साधन-सम्पन्न प्राणी ही आत्मकल्याण कर सकता है। इसलिये जो शास्त्रज्ञ है परन्तु शास्त्रोक्त धर्मों में निष्ठा नहीं रखता उसके लिये शास्त्र अकिंचित्कर हैं। वह दूसरे के लिये अवश्य आदरणीय है परन्तु उसे स्वयं अपने पर जुगुप्सा ही करनी चाहिये। उसके प्रति श्रद्धा और सद्भाव रखने से दूसरों का कल्याण अवश्य हो सकता है; भले ही वह स्वयं नरकगामी ही हो। कई पदार्थ ऐसे हैं, जो स्वतः स्वरूपतः पतित हैं, परन्तु यदि उनकी विधिवत् सेवा-पूजा की जाय तो अपने उपासक का कल्याण कर सकते हैं। गौ स्वयं पशु हैं, परन्तु अपने भक्त को गोलोक ले जाती है। अश्वत्थ वृक्ष स्वयं पापयोनि स्थावर है, किन्तु अपनी पूजा करने वाले का कल्याण कर सकता है। इसी प्रकार ब्राह्मण यद्यपि शरीर दृष्टि से महा अपवित्र, अस्थिमांस एवं चर्मरूप ही है, तो भी अपने में श्रद्धा रखने वाले के लिये तो सब प्रकार मंगल का ही कारण होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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