भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जब तक कर्म के करने में परम लाभ सुनिश्चित न होगा और उसके परित्याग में परम हानि का निश्चय न होगा तब तक उसमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती। जिस प्रकार आत्मज्ञान के लिये श्रुति कहती है कि ‘इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्मती विनष्टिः’ उसी प्रकार कर्म के अकरण में भी प्रत्यवाय प्राप्ति का पूर्ण निश्चय होना चाहिये। इसी से आग्निहोत्रादि नित्य कर्मों के लिये तो शास्त्र की जबरदस्त आज्ञा है किन्तु सोमादि नित्य कर्मों के लिये यथाशक्ति पद का अध्याहार किया गया है। नित्यकर्मों में भी यथाशक्ति पद का अध्याहार हो सकता है; जैसे रोग के समय सन्ध्योपासन न कर सके तो केवल मानसिक संध्या ही कर ले अथवा केवल अर्ध्यदान कर ले। किन्तु अधर्म तो कभी कर्तव्य नहीं हो सकता। अतः क्षत्रिय, वैश्य को ब्राह्मण के धर्म का आश्रय करना अथवा शूद्र को वेदाध्ययन करना कभी विहित नहीं हो सकता। इसलिये यदि तुम परम कल्याण चाहते हो तो ऐसे ब्राह्मणों का समाश्रयण करो जो पाप से सर्वथा बचा हुआ हो और धर्म का यथाशक्ति पालन करता हो। वही सत्पुरुष है। उसकी सेवा करने से ही परमात्मा की प्राप्ति कर सकोगे। भगवान ने ‘शुश्रूषध्वं सतीः’ ऐसा कहकर सर्वसाधारण को यही उपदेश किया है। पहले कह चुके हैं कि जीवमात्र परतन्त्र होने के कारण केवल परब्रह्म परमात्मा ही पूर्ण पुरुष है। ‘पतीन् शुश्रूषध्वम्’ इस कथन से भी स्त्रीमात्र के परमपति सच्चिदानन्दघन परमपुरुष परमात्मा ही विवक्षित हैं। अतः जिस प्रकार स्त्रियों को पतियों का शुश्रूषण आवश्यक है उसी प्रकार जीवमात्र को पूर्ण परब्रह्म परमेश्वर की आराधना करना परम कर्तव्य है। इसमें किसी प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिये। परन्तु एक ही परमात्मा की आराधना विवक्षित होने पर भी यहाँ ‘पतीन्’ ऐसा बहुवचन क्यों है? यह कथन जीवभेद की दृष्टि से है। जिस प्रकार गगनस्थ सूर्य एक ही है तथापि जलपात्रों के भेद से उसके अनेकों प्रतिबिम्ब पड़ते हैं, उसी प्रकार एक ही सच्चिदानन्दघन परमात्मा विभिन्न अन्तःकरणों में विभिन्न रूप से प्रतिफलित हो रहे हैं। अथवा भावनाभेद या अवतराभेद के कारण वह बहुवचन हो सकता है, क्योंकि एक ही भगवान राम, कृष्ण, शिव आदि अनेकों रूपों में प्रकट हुए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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