भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
‘शिष्यते हितमुपदिश्यतेऽनेन इति शास्त्रम्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार भी वेद ही शास्त्र है, क्योंकि निरपेक्ष हित का उपदेश उन्हीं में किया गया है। अन्य शास्त्रों में जो हितोपदेश है उसे श्रुति-प्रामाण्य की अपेक्षा है। वैदिक लोग दर्शन, स्मृति और गीता का भी स्वतःप्रामाण्य नहीं मानते; उनका प्रामाण्य वेदमूलक होने के ही कारण है। मनस्मृति इसीलिये प्रामाणिक है क्योंकि वह वेदानुमोदित धर्म का प्रतिपादन करती है और श्रुति उसके लिये कहती है कि ‘यद्धे मनुरवदत्तद्भेषजम्’। श्रीमद्भगद्गीता भी वेदानुसारिणी होने के कारण ही प्रामाणिक है। यदि भगवदुक्ति होने के कारण उसे स्वतःप्रमाण कहा जाय तो बौद्ध दर्शन भी प्रामाणिक माना जायगा। किन्तु वेद-विरुद्ध होने के कारण बौद्ध दर्शन भगवदवतार भगवान् बुद्ध की उक्ति होने पर भी प्रामाणिक नहीं है। प्रमाणों का किसी अर्थ में सांकर्य होता है और किसी में व्यवस्था होती है। शब्द केवल श्रोत्रेन्द्रिय से ही ग्रहण किया जा सकता है। उसका ज्ञान किसी अन्य इन्द्रिय से नहीं हो सकता। अतः श्रोत्र शब्द ग्रहण में इन्द्रियान्तर-निरपेक्ष प्रमाण है। यहाँ प्रमाण की व्यवस्था है। किन्तु दूरस्थ जल नेत्र से भी ग्रहण किया जा सकता है। ऐसे ही और भी कितने ही पदार्थ हैं जो कई प्रमाणों से ज्ञात हो सकते हैं। उनमें प्रमाणों का सांकर्य है। वेद स्वतःप्रमाण हैं और गीतादि का प्रामाणिकत्व वेदमूलक होने के कारण है-ऐसा कहकर हमने गीता का निरादर नहीं किया। जैसा हम पहले दिखा चुके हैं, हमारा यह कथन भगवदुक्ति के ही अनुसार है। अतः यह तो उसका सम्मान है। जो लोग ऐसा कुतर्क करते हैं कि गीता के वेदानुसारी होने में क्या प्रमाण है उनकी यह चेष्टा साहस मात्र है। गीता के वेदानुसारित्व में शंका करना बड़ी भारी धृष्टता है। एक बात बहुत ध्यान देने योग्य है। लोग चमत्कारों से बहुत आकर्षित होते हैं। शास्त्रानुयायियों पर जनता की ऐसी श्रद्धा नहीं होती जैसी कि चमत्कारों पर होती है। किन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है कि सिद्धि वैदिकों में ही होती हो। जैन आदि अन्य मतावलम्बियों में भी सिद्धियाँ और तितिक्षा आदि गुण देखे जाते हैं। परन्तु उनका अनुगमन नहीं करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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