भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
श्रीमद्भगवद्गीता में आत्मकल्याण के लिये साधुसेवा की आवश्यकता भगवान कृष्ण ने इस प्रकार दिखलायी है-
किन्तु सेवा में धैर्य की बहुत आवश्यकता है; जल्दबाजी से काम नहीं चलता। देखो इन्द्र ने दीर्घकाल तक सेवा की तभी उसका अन्तःकरण शुद्ध हुआ और वह आत्मतत्त्व की उपलब्धि में समर्थ हो सका। गीता में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र कहते हैं-
इस प्रकार भगवान ने ‘साधुओं का परित्राण’ अपने अवतार का प्रधान प्रयोजन बतलाया है। अब यह प्रश्न होता है कि साधु किसे कहते हैं? भाष्यकार भगवान शंकराचार्य ने ‘साधूनाम्’ इस पद का पर्याय ‘सन्मार्गस्थानाम्’ लिखा है। किन्तु ‘सन्मार्ग’ क्या है? इसका निर्णय होना बहुत कठिन है। यदि कहा जाय कि शास्त्रानुमोदित मार्ग का नाम सन्मार्ग है, तो इसमें भी सन्देह होता है; क्योंकि यह निश्चय होना कठिन है कि सच्छास्त्र कौन है। लोग शंका करते हैं कि वेद ही सच्छास्त्र क्यों है, कुरान या बाइबिल आदि को ही प्रधान सच्छास्त्र क्यों न माना जाय? यद्यपि यह बात युक्ति से भी सिद्ध की जा सकती है कि वेद ही सच्छास्त्र है तथापि यहाँ इसका प्रसंग नहीं है। इसलिये विशेष न कहकर थोड़ा-सा संकेत किया जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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