भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार का प्रयत्न भी तो एक व्यापार ही है; अतः वह निवृत्ति नहीं, उसे व्यापार शान्ति ही कहा जात सकता है। वस्तुतः ‘संन्यासस्तु पूर्णब्रह्मणि सम्यक्न्यासः’ इस लक्षण के अनुसार पूर्ण ब्रह्म में सर्वथा आत्मसमर्पण करने का नाम ही संन्यास है। वह उपेय या साध्य है, उपाय या साधन नहीं है। इसी से भगवान गोपिकाओं को उपदेश करते हैं कि मैं तो उपेय हूँ, तुम मुझे प्राप्त करने के लिये पति शुश्रूषण-रूप उपाय का अवलम्बन करो। यदि मोह या दुर्दैववश तुम्हारी स्वधर्म में निष्ठा नहीं है तो अहंकार छोड़ो और शास्त्रज्ञों का सत्संग करो। इससे स्वधर्म में तुम्हारी अभिरुचि होगी। इसी बात को लक्षित करने के लिये भगवान ने व्रजांगनाओं से कहा है- ‘शुश्रूषध्वं सतीः’ (सत्पुरुषों की सेवा करो) स्त्रियों के लिये पतिव्रता ही सत्पुरुष हैं। जिस प्रकार स्त्रियों के लिये भगवान ने पतिव्रताओं का संग करने की आज्ञा दी है उसी प्रकार पुरुषों को शास्त्रज्ञ और निःस्पृह ब्राह्मणों का सहवास करना चाहिये। मनु भगवान ने भी ब्राह्मणों से ही उपदेश ग्रहण करने की आज्ञा दी है। वे कहते हैं-
जो लोग देखा-देखी दूसरों को उपदेश करने लगते हैं वे उनके पतन के ही करण होते हैं। वास्तविक कल्याण तो शास्त्रज्ञ ब्राह्मण के ही उपदेश से हो सकता है। जिस प्रकार कोई साधारण पुरुष किसी वैद्यराज के थोड़े से औषधि प्रयोगों को देखकर यदि स्वयं भी वैद्यराज होने का दावा करके औषधि देने लगे तो वह रोगियों की मृत्यु का ही कारण होता है, उसी प्रकार अनधिकारी उपदेशक जनता के अमंगल के ही हेतु होते हैं। अज्ञ जन केवल श्रवण के ही अधिकारी हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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