भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
साधारण पुरुषों के लिये तो यही क्रम है; हाँ, गुणातीतों की बात अलग है। गुणातीत तो कहते ही उसे हैं जिस पर गुणों का आक्रमण न हो। अतः अज्ञ पुरुषों को उनका अनुकरण न करके स्वधर्म का ही आश्रय लेना चाहिये। यदि वे उसे छोड़कर नैष्कर्म्य पर आरूढ़ होना चाहेंगे, तो सर्वथा पतित हो जायेंगे। यह बात भी सुनिश्चित है कि प्रयत्न केवल साधन में ही होता है, फल में प्रयत्न नहीं होता। साधन के पर्यवसान में फल तो स्वतः प्राप्त हो जाता है। यदि किसी काष्ठ को काटना है तो कुठार का उद्यमन और निपातन किया जाता है। वहाँ प्रयत्न की आवश्यकता कुठार के उद्यमन-निपातन में ही होती है; उसके परिणाम में द्वैधीभाव तो स्वयं हो जाता है। इसी प्रकार आवश्यकता इसी बात की है कि हम सबसे पहले कर्म द्वारा अपनी उच्छृंखल प्रवृत्तियों का निरोध करके फिर सात्त्विक प्रवृतियों द्वारा अपनी राजस, तामस प्रवृत्तियों का निरोध करें। उसके पश्चात जब हमारी सात्त्विक प्रवृत्ति का भी निरोध हो जायगा तो स्वस्वरूप की उपलब्धि स्वतः ही हो जायगी। ज्यों ही मानस व्यापार की शान्ति हुई कि “तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्’ इस सूत्र के अनुसार द्रष्टा की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है। वस्तुतः नैष्कर्म्य क्या है- इस बात को साधारण पुरुष समझ भी नहीं सकते, इसीलिये वे कर्मत्याग की व्यर्थ चेष्टा में प्रवृत्त होते हैं। जिस प्रकार नौकारूढ़ व्यक्ति को भ्रमवश तटस्थ वृक्षादि दिखाई देते हैं और अपने में स्थिरता प्रतीत होती है, उसी प्रकार अज्ञानियों को मोहवश अपने निष्क्रिय शुद्ध स्वरूप में कर्म की प्रतीति होती है। इसी बात को भगवान ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-
वास्तव में अकर्म तो स्वरूप स्थिति है, वह कर्तव्य नहीं है। जो अकर्म को कर्तव्य समझकर देहेन्द्रिय व्यापार की निवृत्ति का प्रयत्न करते हैं वे अकर्म के रहस्य से सर्वथा अनभिज्ञ हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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